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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुनिटीका अ. ४ सू. ७ बलदेववासुदेवस्वरूपनिरूपणम् ४२७ 'रिउसहरसमागमणा, रिपुसहस्रमानमथना:= रिपुसहस्राणां मानंा मध्नन्ति ये ते तथा शत्रुदविध्वंसकाः 'साणुकोसा ' सानुक्रोशा:- आश्रित रक्षकाः 'अमच्छरी' अमत्सरिणः = परशुभस्याद्वेषिणः --- परसुखेन सुखिन इत्यर्थः ' अचवला ' अचपळा : - मनोवाक्काय चपलतारहिता, अचण्डाः = अकारणक्रोधवर्जिताः 'मियमंजुलप्पलावा' मितमन्जुलपलापाः- मितः परिमितः सार्थकः मजुज्लः = मनोहरः प्रलापः = आलापो येषां ते तथा परिमितसत्यमधुरभाषिणः 'हसियगंभीरमहुरमणिया ' इसित गम्भीर मधुर भणिता:- हसितम् - हास्ययुक्तं गम्भीरं सारगर्भ मधुरं च भणितं = भाषणं येषां ते तथा 'अन्भुवगयवच्छला' अभ्युपगतवत्सला:-अभ्युपगतेषुसमीपमागतेषु वत्सलाः स्नेहयुक्ताः 'सरण्णा ' शरण्याः शरणे साधवः शरणागतरक्षकाः 'लक्खणवंजणगुणोववेया' लक्षणव्यञ्जनगुणोपेताः = तत्र लक्षणानि अपराजित शत्रुओं के मान को गलित कर देते हैं, अर्थात् प्रबल से भी प्रबल विरोधियों के वे विनाशक होते हैं, तथा (रिउसहस्समाणमद्दणा ) हजारों शत्रुओं के मान को जो देखते २ क्षणभर में नष्ट कर डालते हैं। एवं (साणुकोसा) अपने आश्रित व्यक्तियों की सदा रक्षण करते रहते हैं (अमच्छरी ) दूसरों के शुभ से जिनके चित्त में थोड़ा सा भी द्वेष नहीं जगता है, अर्थात परके सुखसे सुखी होते हैं (अचवला) मन, बचन एवं कायकी चंचलता से जो रहित होते हैं (अचंडा) विना कारण के जिन्हें क्रोध नहीं आता है (मियमंजुलप्पलावा) मित - सार्थक तथा मनोहर जिनका आलाप होता है, अर्थात् जो परिमित सत्य मधुरभाषी होते हैं। (हसियगंभीर महुर भणिया) जो हास्ययुक्त, सारगर्भित और मधुर भाषण करते हैं (अभुवयवच्छला) जो अपने निकट आये हुए प्राणियोंके साथ 99 66 શત્રુઓનું માનમન કરી નાખે છે, એટલે કે પ્રમળમાં પ્રખળ શત્રુને પણ તેએ નાશ १२नार होय छे, तथा “रिउ सहस्समाणमद्दणा " मरो शत्रुसोने मे लेत नेतामांक्षणुवारमां भडात १रे छे, सने से रीते तेमनुं मानमर्दन अरे छे, “साणुकोसा પોતાના આશ્રિતાનું સદા રક્ષણ કરે છે, अमच्चरी ” અન્યને લાભ થતા જોઈને જેમના ચિત્તમાં સહેજ પણ દ્વેષ થતા નથી, એટલે કે તેઓ પરના सुपे सुणी धनार होय छे, “अचवला ” भन, वयन अयानी ययगताथी ने रहित होय छे, " अचंडा " विना अरशु प्रेमने अध थतो नथी, मियमंजुलप्पलावा " भित-सार्थ तथा मनोहर नेमनां वयन होय छे, अथवा ने परिभित सत्य मधुर वाणी वाणा होय छे, “ हसियगंभीर महुरभणिया " ने हास्ययुक्त સારગર્ભિત અને મધુર ભાષણ કરે છે अब्भुवगयवच्छला " ने पोतानी પાસે આવતા પ્રાણીઓ તરફ્ સ્નેહાળ હોય છે, सरण्णा " शरणे भावेसनी 66 (( 66 For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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