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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६६ प्रश्नग्याकरणस्ये भणितम्-उक्तं, 'भयकरं' भयकरं-भयजनकम् , 'दुहकरं ' दुःखकरं दुःखननकम् , ' अजसकरं' अयशः करं-अयशजनकं, 'वेरकारगं' वैरकारकं वैरोत्पादकं, 'रति अरतिरागदोसमण संकिलेसवियरणं' रत्यरतिरागद्वेषमनः संक्लेशवितरणरति भीतिरसंयममार्गे, अरतिः अप्रीतिः संयममार्गे, रागः = विषयेष्वनुरञ्जनं 'दोस' द्वेषः-द्रोहः, मनः संक्लेशः चित्त सन्तापः, एतान् वितरति = ददाति यत्तत्तथा ' अलियं अलीक-निष्फलं 'नियडि साविजोगबहुलं' निकृतिसाति योगबहुलं निकृतिः कृतदुष्कृतकर्मापलापनार्थवचनं सातिः अविश्वासस्तयोर्योगः प्रयोगस्तेन बहुलं यत्तत्तथा-कपटाधिश्वाससंभृतमित्यर्थः, ‘नीयजणनिसेवयं' नीचजननिषेवितं नीचः जातिकुलगुणादिभिरधमैर्जनैनिषेवितं, 'निस्संसं' नृशंसं जो चञ्चल शरीर हैं उनके द्वारा कहा गया यह असत्यभाषण (भयकर) भय देनेवाला है । (दुहकर ) दुःख उत्पन्न करने वाला है, ( अजसकरं) अयश बढ़ाने वाला है, (वेरकारग ) वैर भाव को उत्पन्न कराने वाला है, (रइ अरइ रागदोसमणसंकिलेसवियरणं) रति-असंयम मार्ग में प्रीति, अरति-संयममार्ग में अप्रीति, राग-विषयों में अनुराग, दोसपरसे द्रोह एवं मणसंकिलेस-चित्तसंताप, इन सब दुर्गुणों को 'वियरणं' देने वाला है ( अलियं ) निष्फल है ( नियडिसातिजोगबहुलं ) किये हुए दुष्कृतकर्म का अपलाप करने के लिए अनेक जालरचना, तथा कहीं पर भी किसी पर विश्वास नहीं होने देना इन बातों का जिसमें अधिक से अधिक योग रहता है ऐसे स्वभाववाला है अर्थात्-कपट एवं अविश्वास से भरा हुआ है । ( णीयजणणिसेवियं ) इसका सेवन जो जाति, कुल एवं सद्गुणो से रहित होते हैं वे जन करते हैं । (निस्संस) यह नृशंसते मसत्य यन " भयंकर " मय४२ छ, “दुहकर" : Sपन्न ४२॥३ छ, "अजसकर" २५५:त धाना२ छ, “वेरकारगं' पैरसाव पेह! ४२नार छ, “रइ अरइ रागदोसमणसंकिलेसवियरण" रइ-मसयभमागभां प्रीति अरह-मशति-संयम માર્ગમાં અપ્રીતિ, રાગ-વિષય પ્રત્યે આસક્તિ, દેસ–પારકાને દ્રોહ, અને મનસંકિલેસ भनमा ५, हिशुल “वियरणं" ना२ छ, “ अलिय" नि छ, " नियडिसातिजोगबहुलं" ४२ai हुकृत्याने ५११॥ भाट भने १२यना, તથા ક્યાંય પણ કેઈના ઉપર વિશ્વાસ ઉત્પન્ન થવા ન દે, વગેરે બાબતને જેમાં વધારેમાં વધારે ગ રહે છે એવા સ્વભાવવાળું, એટલે કે કપટ અને अविश्वासथी मरे हाय छे. “णीयजणणिसेविय" तेनु सेवन गति, शुज भने सदगुणोथी २डित सो ४२ छे. " निस्संसं "ते नृ'स-२ छ, 9441 For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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