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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुर्शिनी टीका अ० २ सू० १ अलोकवचननिरूपणम् -क्रूरं यद्वा-निशंसं-निर्गता शंसा प्रशंसा यस्मात्तत्तथा-प्रशंसावर्जितमित्यर्थः, 'अप्पच्चयकारगं' अप्रत्ययकारकम् विश्वासनाशकम् , ' परमसाहुगरहणिज्ज' परमसाधुगर्हणीयं = परमा उत्कृष्टाश्वते साधवस्तीर्थंकरगणधरादयस्तैगर्हणीयं % निन्दनीयं, 'परपीलाकारगं' परपीडाकारकं, 'परमकिण्हलेस्ससहियं' परमकृष्णलेश्यासहितं परमा उत्कृष्टा कृष्णा मलिना लेश्या आत्मपरिणतिः, तया सहित 'दुग्गइ विणिवाय विवणं' दुर्गतिविनिपतिविवर्धनं दुर्गतौ-नरकनिगोदादौ यो विनिपाता=निपतनं तस्य विवर्धनं भवर्धकं ' भवपुणब्भवकरं' भवपुनर्भवकर पुनः पुनर्जन्मकारक 'चिरपरिचियं ' चिरपरिचितं-चिरात्=अनेकजन्मजन्मान्तरात् परिचितम् = अनादिमिथ्यात्वाविरतिभवाहविच्छेदा - भावात् ' अनुगतं भवपरक्रुर है, अथवा निःशंस इस भाषण को कोई भी प्रशंसा नहीं करता है इसलिये यह प्रशंसा रहित है, (अप्पच्चय कारगं) यह बोलने वाले के विश्वास का नाशक होता है। (परमासाहुगरहणिजं ) परमसाधु जो तीर्थकर गणधर आदि हैं उनके द्वारा यह गहणीय-निंदनीय कहा गया ले । (परपीलाकारगं) इस वचन से पर को पीडा होने के सिवाय और कुछ नहीं होता है । ( परमकिण्हलेस्ससहियं ) इसके सेवन करने वालों की लेश्या-आत्मपरणति अत्यंत मलिन रहा करती है। ( दुग्गइविणिवायविवडणं ) निगोद आदि दुर्गतियों में यह जीव के पतन का विशेष रूप से वर्धक होता है। ( भवपुणन्भवकरं ) इसके बोलने वाले जीवों का पुनः पुनः संसार में जन्म होता रहता है । ( चिर परिचियं ) अनेक जन्म जन्मान्तर से यह परिचित रहता है-अर्थात्-जन्म जन्मा. न्तरों में इसका संस्कार साथ रहे आने के कारण अनादि काल से लगे से भाषागुनी । प्रशसा ४२ नथी ते १२ ते प्रशस. २(डत छ, “ अप. चयकारगं" ते मोसार प्रत्येना मन्यना विश्वास नाश छ. “परमसाहुगरहणिज्ज" ५२५ साधु रे ती॥ ४२ ४५२ मा छ, तमना द्वारा ते गई jीय-निनीय मतावाम मा छे. " परपीलाकारग" ते वयनथी ५२ने पीडा था सिवाय मीनु ४४५५५ तु नथी. “ परमकिण्ह लेस्ससहियं " तेनु सेवन ४२नारनी वेश्या-मात्मपरिणति मत्यात भनिन रखा ४२ छ- " दुग्गइ विणिवाय विवड्ढणं "५२४, निगाह माहि गतियोमा पने पावाने भाटते विशेष३थे १५४ जाय छे. " भवपुणब्भवकर" ते असत्य मोदना२ ७वाने ५२॥ ३शन संसारमा म सेवा ५ छे. “ चिरपरिचिय” भने सन्म भतराथी ते પરિચિત રહે છે. એટલે કે જન્મ જન્માંતરમાં તેના સંસ્કાર સાથે રહેતા For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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