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निवेदन
श्रमण संस्कृति के प्रवर्तक भ. महावीर और भ. बुद्ध ने बहुजनहिताय बहुजनसुलाय ऐसा समतामयी मानवता का सन्देश आम जनता को समझाने के लिये उस समय की लोक भाषा प्राकृत-पाली के ही माध्यम से जगह-जगह घूम-घूम कर दिया। श्रमणसंस्कृति के इन प्राकृत-पालि भाषाओं का महत्त्व जानकर समाजशुभचिन्तक परमोपकारी पण्डितरत्न बालब्रह्मचारी आचार्यसम्राट् पूज्य श्री १००८ श्री आनन्दऋषिजी महाराज ने लुधियाना के चातुर्मास में वीर संवत् २४९२ ( इ. स. १९६६) के भाद्रपद शुद्ध पंचमी के शुभ अवसर पर इन भाषाओं के तौलनिक अध्ययन के लिये जो प्रेरणा दी, उसका फलस्वरूप पाथर्डी में श्री प्राकृत भाषा प्रचार समिति की स्थापना होकर तब स यह समिति कार्यान्वित हो गई।
फरवरी १९६८ से प्राकृत भाषा प्रथमा और द्वितीया परीक्षा के द्वारा समिति का परीक्षण कार्य शुरू हुआ । इसके आगे बी. ए. ऑनर्स तक का अभ्यासक्रम ( प्राकृत प्राज्ञ, प्राकृत प्रवीण और प्राकृत प्रभाकर) भी तैयार किया गया है।
समिति के आरंभकाल से ही प्रा. मा. श्री. रणदिवे अंत:करण से सहयोग दे रहे है । अगले प्राकृत माषा प्राज्ञ परीक्षा के लिए भी प्रा. रणदिवेजी ने 'पाययकुसुमावली' यह पाठ्यपुस्तक तैयार किया है इसलिये हार्दिक धन्यवाद !
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