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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है, कि रोगी कैसे ही कुछ भी अधिक खा ले, चाहे उसका परिणाम कैसा ही क्यों न हो, वे उस समय उसकी चिन्ता नहीं करतीं । उनका यह सिद्धान्त वाक्य है, कि "खाता पीता न मरे ऊंघतरा मरजाय।" मिलने जुलनेवाले भो मूर्खतावश इसी का उपदेश करते हैं कि दो ग्रास भी अधिक अन्न पेट में किसी भी प्रकार जैसे तैसे पहुंचा दिया जाया करे तो बहुत उत्तम । पर वे अपनी बुद्धि से इतना विचार करने का कष्ट भी नहीं उठाते हैं, कि यदि रोगी रुचि से खाय तो फिर बीमारी ही कैसी ? और बिना रुचि के पेट में डालना मानो मांदगी में मृत्यु का जल्दी आवाहन करने का उधोग करना है। ये लोग बारबार पूछ करके स्वयं नेधों को भी दिक करते हैं, और कई बार अपथ्य करने वाली वस्तुओं के लिये भो उनसे जबरन आज्ञा प्राप्ति के लिये भी भरसक प्रयत्न करते हैं। और रोगों के दुर्भाग्य से कभी कभी किसी न किसी रूप में थोड़ी बहुत सफलता इन्हें मिल हो जाती है। कहां । पथ्य की उपेक्षा तो हम लोगों के घरों में यहां तक को जाने लगी है कि स्पष्ट आदेश कर देने पर भी वो और डाकुरों के कथन का पूरा पालन नहीं हुआ करता है । चलते फिरते और अच्छी पाचन शक्ति वाले मनुष्य के पथ्य में यदि वैद्यकीय सलाह के उपरान्त थोड़ा बहुत अन्तर भी हो जाय तो उतना अनिष्टकारी नहीं होता है । परन्तु मृत्यु शय्या पर पड़े हुए मन्दाग्नि वाले निर्बल रोगी के पथ्य में यदि वैध की सूचना के विरुद्ध थोड़ा भी अन्तर किया जाय तो बहुत भयङ्कर है । अतः ऐसी अवस्था में तो वैद्य की श्राशा का पूरा पूरा पालन ही श्रेय है। पर अज्ञानी मनुष्य इस विषय में अपनी अधिक चतुराई का उपयोग कर उपचारक की सारी आशा को भङ्ग करके खेल बिगाड़ देते हैं । सैकड़ो और हजारों For Private And Personal Use Only
SR No.020550
Book TitlePathya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchand Tansukh Vyas
PublisherMithalal Vyas
Publication Year
Total Pages197
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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