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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 10/ पाण्डुलिपि - विज्ञान सबसे पहले शोध प्रक्रिया विज्ञान (Research Methodology) को ले सकते हैं । हस्तलिखित ग्रन्थां अथवा पांडुलिपियों को प्राप्त करने के लिए इस खोज - विज्ञान का बहुत महत्त्व है । बिना खोज के हस्तलेख प्राप्त नहीं हो सकते। यह खोज - विज्ञान हमें हस्तलेख खोज करने के सिद्धान्तों से ही अवगत नहीं करता, वह हमें क्षेत्र में काम करने के व्यावहारिक पक्ष को भी बताता है । पांडुलिपि विज्ञान के लिए इसकी सर्वप्रथम श्रावश्यकता है । इसी से ग्रन्थ संकलन हो सकता है । यही संकलन हमारे लिए आधार भूमि है । यों तो भारत में और विदेशों में भी प्राचीन काल से पुस्तकालय रहे हैं । प्राचीन काल में संपूर्ण साहित्य हस्तलेखों के रूप में ही होता था, अतः प्राचीन पुस्तकालयों में अधिकांश हस्तलेख र पाडुलिपियाँ ही हैं । उन्हीं की परम्परा में कितने ही धर्म - मन्दिरों में आज तक हस्तलेखों के भण्डार रखने की प्रथा चली आ रही है ।" इसी प्रकार राजा-महाराजा भी अपने पोथीखानों में विशाल हस्तलेखों के भण्डार रखते थे । किन्तु इन पुस्तकालयों के अतिरिक्त भी बहुत सी ऐसी हस्तलिखित सामग्री है जो जहाँ-तहाँ बिखरी पड़ी है । उस सामग्री को प्राप्त करना, उसका विवरण रखना या अन्य प्रकार से उसे प्रकाश में लाना भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य है । पांडुलिपि - विज्ञानविद् का इस क्षेत्र में योगदान अत्यन्त आवश्यक है । सामग्री प्राप्त करने की दिशा में दो प्रकार से कार्य हो सकता है :- 1. व्यक्तिगत प्रयत्न एवं 2 संस्थागत प्रयत्न । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (1) व्यक्तिगत प्रयत्नों में कर्नल टॉड, टैस्सिटेरी, डॉ. रघुवीर एवं राहुल सांकृत्यायन प्रभृति कितने ही विद्वानों के नाम आते हैं। टॉड ने राजस्थान से विशेष रूप से कितनी ही सामग्री एकत्र की थी: शिलालेख, सिक्के, ताम्रपत्र, ग्रन्थ आदि का निजी विशाल भण्डार उन्होंने बना लिया था । वे साधन सम्पन्न थे, और साम्राज्य-तन्त्र के अधिकार सम्पन्न अंग । इटेलियन विद्वान टैस्सिटेरी ने राजस्थानी साहित्य की खोज के लिए अपने को समर्पित कर दिया था। राहुल जी एवं डॉ. रघुवीर के प्रयत्न बड़े प्रेरणाप्रद हैं । ये विद्वान् कितनी ही अभूतपूर्व सामग्री किन-किन कठिनाइयों में, अकिंचन होते हुए भी तिब्बत, मंचूरिया प्रादि से लाये जो अविस्मरणीय है । 3. (2) संस्थागत प्रयत्नों में हिन्दी क्षेत्र में नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, अग्रगण्य है । सन् 1900 से पूर्व से ही हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज सभा ने आरम्भ कराई। 1900 से खोज-विवररण प्रकाशित कराये । यह परम्परा श्राज तक चल रही है । इन खोज विवरणों से विदित होता है कि गाँवों और शहरों में यत्र-तत्र कितनी विशाल सामग्री अब भी है । बहुत सी सामग्री नष्ट हो गयी है । इन खोज विवरणों में जो कुछ प्रकाशित हुआ है, उससे हिन्दी साहित्य के इतिहास - निर्माण में ठोस सहायता मिली है तथा शतशः साहित्यिक अनुसंधानों में भी ये विवरण सहायक सिद्ध हुए हैं । अतः ग्रन्थ संग्रह तो महत्त्वपूर्ण हैं ही, 1. मिस्र में अलक्जैणिड्रया का, यूनान में एथेंस का एशिया माइनर में पोम्पिआई का भारत में नालदा को, तक्षशिला का पुस्तकालय । कितने ही विश्वविद्यालयों का इतिहास में उल्लेख मिलता है, जिनके प्राचीन पुस्तकालय हस्तलेखों से मरे पड़े थे । 2. भारत में जैनों के मन्दिरों, बौद्ध संघारामों आदि में आज तक मी हस्तलेखों के विशाल संग्रह हैं । जैसलमेर के संग्रहालय का कुछ विवरण टॉड ने दिया है। राजस्थान के प्रत्येक राज्य में ऐसे ही पोषी खाने थे । For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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