SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4/पाण्डुलिपि-विज्ञान भाषा हैं जिनसे वह आदिम युग के मनुष्य के मानस को पढ़कर निरूपित कर पाता है । ..सभ्यता और संस्कृति के विकास में यह आदिम मनुष्य ऐसे मोड़ पर पहँचाता है कि वह एक और तो चित्र से लिपि की दिशा में बढ़ता है, दूसरी ओर 'भाषा' का विकास कर लेता है । तब वह अपने विचारों को इस प्रकार लिख सकता है कि पढ़ने वाला जैसे स्वयं लिखने वाले के समक्ष खड़ा होकर लिपि की लकीरों से लेखक के मानम का साक्षात्कार कर रहा हो। अब सामान्यतः अपनी कल्पना से उसे लेखक के मानस का निर्माण नहीं करना, जैसे गुफा-निवासी के मानस का किया गया; वह मानस तो लेख से लेखक ने ही खड़ा कर दिया है। इस लेखन के अनेक रूप हो सकते हैं, अनेक लिपियाँ हो सकती हैं, अनेक भाषाएँ हो सकती हैं। पर सबमें मनुष्य का मानस-व्यापार, उसके भाव-विचार, उसने जो देखा-समझा उसका विवरण होता है। वस्तुतः लेख में ही मनुष्य, का साक्षात् मानस प्रतिबिंबित मिलता है। ये सभी, चित्र से लेकर लिपि-लेखन सक, पांडुलिपि के अन्तर्गत माने जा सकते हैं। 'लेखन' एक जटिल व्यापार है। इसमें एक तत्त्व तो लेखक है. जिसके अन्तर्गत उसका व्यक्तित्व, उसका मनोविज्ञान और अभिव्यक्ति के लिए उसका उत्साह, अभिप्राय और प्रयत्न–शरीर, हृदय और मस्तिष्क-इन सबसे बनी एक इकाई-सभी सम्मिलित हैं; उसके अन्य तत्त्व लेखनी, लिखने के लिए पट या कागज, स्याही प्रादि हैं । इनमें से प्रत्येक का अपना इतिहास है, सबके निर्माण की कला है, और सबको समझने का एक विज्ञान भी है। लिपिक अपना अलग महत्त्व रखता है। लेखक जब ग्रन्थ-रचना करता है, तब वह अपना लिपिक भी होता है क्योंकि वह स्वयं लिखकर ग्रन्थ प्रस्तुत करता है । लेखक के अपने हाथ में लिखे ग्रन्थ का अपने आप में ऐतिहासिक महत्त्व है। ग्रन्थ-रचयिता कितना ही विद्वान और पंडित हो, जब ग्रन्थ रचना करता है, अपने विचारों और विषयों को लिपिबद्ध करता है तो कितनी ही समस्याओं को जन्म देता है। ये प्रायः वे ही समस्याएँ होती हैं, जो सामान्य लिपिकार पैदा करता जाता है। और ऐमी अनेक प्रकार की समस्याओं के लिए पांडुलिपि-विज्ञान की अपेक्षा है। हमने यह देखा कि पांडुलिपि से सम्बन्धित कई पक्ष हमारे सामने आते हैं । एक पक्ष ग्रन्थ के लेखन और रचना विषयक हो सकता है। यह ग्रन्थ-लेखन की कला का विषय बन सकता है । दूसरा पक्ष, उसकी लिपि से सम्बन्धित हो सकता है, यह 'लिपि विज्ञान' का विषय है । 'लिपिकार' सम्बन्धी पक्ष भी कम महत्त्व का नहीं। तीसरा पक्ष, भाषा-विषयक है जो भाषा-विज्ञान और व्याकरण के क्षेत्र की वस्तु है। चौथा पक्ष, उस ग्रन्थ में की गई चर्चा के सम्बन्ध में हो सकता है, उसमें ज्ञान-विज्ञान की चर्चा हो सकती है, वह काव्य ग्रन्थ भी हो सकता है। ये सभी पक्ष साहित्यालोचन या विविध ज्ञान-विज्ञान और काव्य शास्त्र से सम्बन्धित हैं । यह पक्ष 'शब्द-अर्थ' का ही एक पक्ष है । ये ग्रन्थ चित्रयुक्त भी हो सकते हैं। चित्र का विषय चित्रकला के क्षेत्र में जायेगा। ग्रन्थ जिस पर लिखा गया है उस वस्तु (चमड़ा, ईट, छाल, पत्ता, कपड़ा, आदि) का एक अलग पक्ष है, फिर उसे किस प्रकार पुस्तकाकार बनाया जाता है यह अलग विज्ञान है । स्याही एवं लेखनी का निर्माण एक पृथक् अध्ययन का विषय है। ग्रन्थ इन सभी से मिलकर तैयार होता है और ये सभी पक्ष इससे बँध जाते हैं । इसके बाद ग्रन्थों की प्रतिलिपि का पक्ष आता है। किसी प्राचीन ग्रन्थ की अनेकानेक प्रतियाँ लम्बे ऐतिहासिक काल में बिखरी हुई और विस्तृत For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy