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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाण्डुलिपि-विज्ञान और उसकी सीमाएँ।5 भु-भाग में फैली हुई मिलती हैं । प्रतिलिपि की अपनी कला है। इस पक्ष का अपना महत्त्व है । इन प्राचीन प्रतियों को लेकर उनके प्राधार पर ग्रन्थ का सम्पादन करना तथा एक ग्रादर्श पाठ प्रस्तुत करना एक अलग पक्ष है । इसका एक अलग ही पाठालोचन-विज्ञान अस्तित्व में पा चुका है। इस प्रकार हम देखते हैं कि एक पांडुलिपि में कितनी ही बातें होती हैं और उनमे से अनेक का एक अलग विज्ञान है पर उनमें से कोई भी अलग-अलग पांडुलिपि नहीं है, न लिपि मात्र पांडुलिपि है और न उसमें लिखी भाषा और अंक, न चित्र, न स्याही और न कागज, न शब्दार्थ, न उसमें लिखा हुमा ज्ञान-विज्ञान का विषय, ---पांडुलिपि इन सबसे मिलकर बनती है, साथ ही इन सबसे भिन्न है । लेकिन इन सबके ज्ञान-विज्ञान से पांडुलिपि के विज्ञान को भी हृदयंगम करने में महायता मिल सकती है। उसके ज्ञान के लिए ये विज्ञान सहायक हो सकते हैं। पांडुलिपि विज्ञान की दृष्टि से जिस पर सबसे पहले दृष्टि जाती है वह तो इन सबके पारस्परिक नियोजन की बात है। उन सबका नियोजनकर्ता एक व्यक्ति अवश्य होता है । वह स्वयं उस पांडुलिपि का कता हो सकता है अतएव विद्वान और पण्डित । किन्तु वह मात्र एक लिपिक भी हो सकता है जो उसकी प्रतिलिपि प्रस्तुत करे । मूल पांडुलिपि भी पांडुलिपि है और उसकी प्रतिलिपि भी पांडुलिपि है । इस प्रकार एक व्यक्ति द्वारा पांडुलिपि के विभिन्न तत्त्वों के नियोजन मात्र से ही वह व्यक्ति पांडुलिपि को पूर्णता प्रदान करने में समर्थ नहीं है । क्योंकि उसके जो उपादान हैं उन पर लेखक तथा लिपिकर्ता का वश नहीं होता । उमे कागज दूसरे से तैयार किया हुआ लेना होता है, वह कागज स्वयं नहीं बनाता । यदि अनेक प्रकार के कागज हों तो वह चयन कर सकता है। इसी प्रकार लेखनी तथा काम पर भी उसका अधिकार नहीं । वह प्राकृतिक उपादानों से लेखनी तैयार करता है और जैसी भी लेखनी उसे मिलती है उसका वह अपनी दृष्टि से निकृष्ट और उत्कृष्ट उपयोग कर सकता है । स्याही भी वह बनी बनाई लेता है और यदि बनाता भी है तो जिन पदार्थों से स्याही बनायी जाती है, वे सभी प्रकृतिदत्त पदार्थ होते हैं जिनका वह स्वयं उत्पादन नहीं करता। फिर जब वह लिखना प्रारम्भ करता है तो वर्ण, शब्द और भाषा उसे संस्कार, शिक्षा तथा अभ्यास से मिलते हैं । लिपि के अक्षरों के निर्माण में उसका कोई हाथ नहीं होता किंतु प्रत्येक अक्षर के निर्धारित रूप को लिखने में वह अपने अभ्यास का और रुचि का भी फल प्रस्तुत करता है इसमे वर्गों के रूप-विन्यास में कुछ अन्तर पा सकता है । किन्तु इन सभी वस्तुओं का नियोजन वह एक विधि से ही करता है और इस विधि की परीक्षा ही पांडलिपि-विज्ञान का मुख्य लक्ष्य है। पांडलिपि का विषय क्या है, यह पांडुलिपि-विज्ञान के अध्येता की दृष्टि से विशेष महत्त्व की बात नहीं है । इसका उसे इतना ही परिचित होने की आवश्यकता है जितने से वह पांडुलिपि के विषय की कोटि निर्धारित कर सके। किन्तु यह उसके लिए अवश्य आवश्यक है कि पांडुलिपि के सम्बन्ध में जो प्रश्न उठे उनका वह प्रामाणिक समाधान प्रस्तुत कर सके । अतः जिन विषयों पर पांडुलिपिवेत्ता से प्रश्न किये जा सकते हैं वे सम्भवतः इस प्रकार के हो सकते हैं :--- (1) पांडुलिपि की खोज और प्रक्रिया। पांडुलिपि का क्षेत्रीय अनुसंधान भी इसी के अन्तर्गत आयेगा। (2) भौगोलिक और ऐतिहासिक प्रणाली से पांडुलिपियां के प्राप्त होने के स्थानों का निर्देश । For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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