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पद्म परीण 18५॥
। है मातासे हित जिनका सोजल तिरकर अतिहर्षके भरे माताके समीप गए दोनों पुत्र दोनों तरफ जाय । ठाढ़े भए, माता को नमस्कार किया सो माताने दोनों के सिर हाथ धरा रामचन्द्र मिथिलापुरी के राजा की पुत्री मैथिला कहिए सीता उसे कमलबासिनी लक्ष्मी समान देख महाअनुरागके भरे समीप गए कैसी हैं सीता मानों स्वर्णकीमूर्ति अग्निमें शुद्ध भई है अति उत्तमज्योतिके समूहकर मंडितहै शरीर जिसका राम कहे हैं हे देबि कल्याणा रूपिणी उत्तम जीवोंकर पूज्य महा अद्भुत चेष्टा की धरणहारी शरदंकी पूर्णमासी के चन्द्रमा समान है मुख जिसका ऐसी तुमसो हमपर प्रसन्न होवो अब मैं कभी ऐसा दोष न करूंगा जिसमें तुमको दुःखहोय हे शील रूपिणी मेरा अपराध क्षमा करो मेरेअाठ हजार स्त्री हैं तिनकी सिरताज तुम हो मोको आज्ञा करो सो करूं हे महासती मैं लोकापवाद के भय से अज्ञानी होयकर तुमको कष्ट उपजाया सो क्षमा करो और हे प्रिय पृथ्वीमें मो सहित यथेष्ट बिहार को यह पृथ्वी अनेक बन उपबन गिरियों कर मंडित है देव विद्याधरोंकर मंयुक्तहै समस्त जगतकर श्रादर मो पूजी थकी मो सहित इस लोक विष स्वर्ग समान भोग भोगो उगते सूर्यसमान यह पुष्पक विमान उममें मेरेसाहत प्रारूढ भई सुमेरु पर्वतकेवन विषे जिनमंदिर तिनका दर्शनकर और जिन जिन स्थानोंविषे तेरीइच्छा होय वहांक्रीड़ा कर हे कांते तू जो कहेसोही मैं करूं तेरावचन कदाचितनउलंघू । देवांगनाममान वह विद्याधारी तिनकर मंडित हेबुद्धिवंतीतू ऐश्वर्यको भज जो तेरी अभिलाषा होयगी सो तत्काल सिद्धहोयगी में विवेकरहित दोषक सागरमें मग्न तेरेसमीप यायाहूं हेमाधि अब प्रसन्नहोवो।।
अथानन्तर जानकी बोली हे राम तुम्हारा कुछ दोष नहीं और लोकों का दोष नहीं मरे पूर्वो
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