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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir पगगा। 18५० पन । मिटे और भयंकर शब्द मिटे वह जल जो उछला था सो मानो कापी रूप वधू अपने तरंगरूप हस्तोंकर माता । | के चरण चगल स्पर्शती थी कैसे हैं चरण युगल कमल के गर्भ से अति कोमल हैं और नखोंकी ज्योति कर देदीप्यमान हैं जल में कमल फले तिनकी सुगंधता कर भ्रमर गजार कर हैं सो मानो संगीत करे ह और क्रौंच क्या हंस तिन के समह शब्द कर हैं अति शोभा होय रही है और मणि स्वर्ण के सिवाण वन गये तिनको जल के तरंगों के समह स्पर्श हैं और जिसके तट मरकत मणि कर निर्माप अति सोह हैं ऐसे सरोवर के मध्य एक सहस्रदलका कमल कोमल विमल विस्तीर्ण प्रफुल्लित महाशुभ उसक मध्य देवोंने सिंहासन रचा रत्नोंकी किरणोंकर मंडित चन्द्र मंडल तुल्य निर्मल उसमें देवांगनापान सीताका पधराई और सेवा करतीभई सो सीता सिंहासनमें तिष्टी अति अद्भुतहै उदय जिसका शची तुल्य सोहती भई अनेक देव चरणों के तल पुष्पांजली चढ़ाय धन्य धन्य शब्द कहतेभए अाकाश में कल्प वृक्षा के पुष्पोंकी बृष्टिकरते भए और नाना प्रकार के दुन्दभी बाजे तिनके शब्द कर सब दिशा शब्द रूप होती भई गुञ्ज जाति के वादिन महा मधुर गुजार करते भये और मृदंग वाजते भए ढोल दमामा बाजे नांदी जाति के वादित्र वाजे और कोलाहल जातिके वादित्र बाजे और तुरही करनाल अनेक वादित्र वाजे शंखों के समूह शब्द करते भए और बीण बांसुरी बाजी ताल झांझ मंजीर झालरि इत्यादि अनेक वादित्र बाजे विद्याधरोंके समूह नाचते भए और देवों के यह शब्द भए श्रीमत् जनक राजाकी पुत्री एरम उदयकी धरणहारी श्रीमतरामकी गणी अत्यन्त जयवन्त होवे अहो निर्मल शील जिसका आश्चर्यकारी ऐसे शब्द सब दिशाविषे देवोंके होतेभये तब दोनों पुत्र लवण अंकुश कृत्रिम For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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