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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म । पार्जित अशुभ कर्भके उदयसे यह दुःख भया मेरा काहू पर कोप नहीं तुम क्यों विषाद को प्राप्तभए M. हे बलदेव तुम्हारे प्रसाद से स्वर्ग समान भोग भोगे अब यह इच्छाहै ऐसा उपाय करूं जिसपर स्त्री | लिंग का अभाव होय यह महातून विनश्वर भयंकर इंद्रियों के भोग मूढ जनोंकर सेव्य तिनकर कहां प्रयोजन में अनन्त जन्म चौगसी लत यानि विषे खेद पाया अबसमस्त दुःवके निवृतिके अर्थ जिने श्वरी दिक्षा धरूंगी ऐसा कहकर नवीन अशोक वृक्ष के पल्लव समान अपने जेकर तिनकर सिरके केश उपाड रामके समीप डारे सो इन्द्र नील मणिसमान श्याम सचिवण पातरे मुगंधवक्र लम्बायमान महामृदु महा मनोहर ऐसे केशोंको देखकर गम मोहित होय मी खाये पृथ्वी में पड़े सो जौलग इन को सचेत करें तौलग साता पृथ्वीमती अार्यिका पै जायकर दीक्षा धरती भई एक वस्त्र मात्र परिग्रह जिसके और सब परिग्रह तजकर आर्यिका के व्रत घरमहा पवित्र परम पवित्र परम बैराग्यकर युक्तव्रत कर शोभायमान जगत के बंदिवे योग्य होतामई और राम अचेतभयथेसो मुक्ता फल और मलियागिरि चन्दन के छांटिबे कर तथा ताड़ के वाजनों की पवन कर सचेत भए तब दशों दिशा की ओर देखें ता साता को न देख कर चित्त शून्य होगया, शोक और कषायकर युक्त महा गजराज पर चढ़ सीता की ओर चले सिर पर छत्र फिरे है चमर दुरे हैं जैसे देवों कर मंडित इन्द्रचले तैसे नरेन्द्रों कर युक्त राम चले कमल सारिखे हैं नेत्र जिनके कपाय के वचन कहते भए अपने प्यारे जन का मरण भला परन्तु घिरद्द भला नहीं देवों ने सीता का प्रतिहार्य किया सो भला दिया पर उसने हम को तजना विचारा सो भला न किया अब मेरी राणी जो यह देव न देंतो मे रे और देवों के युद्ध होयगा यह देव न्यायवान होयकर मेरीस्त्री For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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