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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म 1122011 | पहरे हाथी चढा नगरमें घोषणा फेरे जिसको जो इच्छा होयसोही लेवोइस भांति विधि पूर्वक दान पूजा उत्सव बुरा कराये, लोक पूजा दानतप आदि विषे जवतें पाप बुद्धि रहित समाधानको प्राप्त भये सीता शांतचित्तधर्ममाग में रक्तभई और श्रीरामचन्द्र मण्डप में प्रायतिष्ठे, द्वारपाल ने जे नगरी के लोक आये थे वे राम से मिलाये स्वर्ण रत्न र निर्मापित अद्भुत सभा को देख प्रजा के लोक चकित हो गये, हृदय को ध्यानन्द के उपजावनहारेराम तिनको देखकर नेत्र प्रसन्नभये प्रजा केलोक हाथजोड़ नमस्कार करते भये कांपन जिनका और डरे है मन जिनका तब रामकहते भये, हेलोको तुम्हारेच्यागमकाकारण होतव विजयमुराजी मधुमानव सुलोघरकाश्यपपिंगल कालपे मइत्यादिनगर के मुखिया मनुष्य निश्चल होयचरणोंकी तरफ चौक गल गया है गर्व जिनका राजतेज के प्रताप करक कह न सकें यद्यपिचिरकाल में सोच सोच कहाचाहतथापिइनके मुख रूप मंदिर सेवाणी रूप विधु ननिकसे तबराम ने बहुत दिलासाकर कही तुमको नर्थयै हो सोक होइस भांति कही. तौभी वे चित्राम कैसे होय रहे कछु न कहें लज्जारूप फांस कर बंधा है कंठ जिनका और चलायमान हैं नेत्र जिनके जैसे हिरण के बालक व्याकुलचित्त देखें तैसे देखेंतच तिनमें मुख्य विजयनाम पुरुष चलायमान है शब्द जिसका सो कहता भया हे देव अभयदानका प्रसाद होय तब रामने कही तुम काहू बात का भय मत करो तुम्हारे चित्तमें जोहोय सो कहो तुम्हारा दुःख दूर कर तुमको साता उपज। ऊंगा तुम्हारेद्योगन नलगा ही लूंगा जैसे मिले हुए दूधजल तिनमें जलको टार हँसदूधही पीछे है श्रीरामने अभयदान दीया तोभी तिक से विचारविचार धीरे स्वरकर विजय हाथ जोड़ सिर निवाय कहता भया कि हे नाथनरोत्तम एक atra सुनो व सकल प्रजा मर्यादारहित प्रवतें है यह लोक स्वभाव ही से कुटिल हैं और एक दृष्टांत For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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