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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुरावा 10 किसी से भी निवारा नजाय तब सीता चिन्तावती होय और राणीयों से कहती भई मेरी दाहनी आंख फर्कने का फल कहो तब एक अनुमतिनामा राणी महाप्रवीण कहती भई हे देवि इसजीव ने जे कर्मशभ अथवा अशुभ उपार्जे हैं वे इस जोव के भले बुरे फल के दाता हैं कर्मही को काले कहिये और विधि कहिये और देव कहिये इश्वर भी कहिये, सब संसारी जीव कर्मों के प्राधीन हैं सिद्ध परमेष्ठी कर्मों से रहित हैं फिर गुणदोष की ज्ञाताराणी गुणमाला सीता को रुदन करती देख धीर्य वन्धाय कहती भई हे देवी तुम पति के सबों से श्रेष्ठ हो तुमको किस प्रकारकादख नहीं और और राणी कहती भई बहुत विचारकर क्या शांतिकर्म करो जिनेन्द्रका अभिषेक और पूजा करावो और किम इछक दान देवो जिस की जो इच्छा होय सो लेजावो दान पूजा कर अशुभ को निवारण होय है इस लिये शुभ कार्य कर अशुभ को निवारो इसभांति | इन्होंने कही तब सीता प्रसनभई और कही योग्य है दान पूजा अभिषेक और तप ये अशुभ के नाशक हैं दान धर्मविघ्न कानाशक वैरकानाशक है पुण्यका और यश का मूलकारण यह विचार कर भद्रकलश नामा भंडारी को बुलायकर कही मेरे प्रसूति होय तो लग किमिछादान निरन्तर देवो तब भद्रकलशनेकही जो श्राप आज्ञा करोगी सोही होयगा यह कहकर भंडारी गया और जिमपूजादि शुभक्रिया विष प्रवरता जितने भगवान के चैत्यालय हैं तिनमें नानाप्रकार के उपकरण चढाये और सब चैत्यालयों में अनेक प्रकार के वादित्र वजवाये मानों मेघ ही गाजे हैं और भगवान् के चरित्र पुराण श्रादिकग्रंय जिनमन्दिरां में पधराय और त्रेलोक्य के पाट समोसरणकपाट द्वीपसमुद्रांतके पाट प्रभुके मन्दिरों में पधराये औरदध दही, घृत, जल मिष्टान्नकेभरे कलश अभिषेक कोपायेऔर सब खोजानो प्रधान जोखोजासो वस्त्राभषण । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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