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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir पुराण १७४३५ अरुण नेत्रकर उलहना देनेको पाए सो योग्य नहीं एती बार्ता लक्ष्मणने कही और राजा मुग्रीव अति भयरूप होय पूर्णभद्रको अर्घ देय कहताभया, हे यक्षेन्द्र क्रोध तजो और हम लंकामें कछु उपद्रव न करें परन्तु यह बार्ता है रावण बहुरूपिणी विद्या साधे है सो जो कदाचित उसको विद्या सिद्ध होय तो उसके सन्मुख कोई ठहर न सके जैसे जिनधर्मके पाठकके सन्मुखबादीन टिके इसलिये वह क्षमावन्तहोय विद्या साधे है सो उसका क्रोध उपजावेंगे जो विद्या साध न सके जैसे मिथ्या दृष्टि मोक्षको साध न सके, तब पूर्णभद्र बोले ऐसेही करो परन्तु लंकाके एक जीर्ण तृणको भी बाधा न कर सकोगे और तुम रावणके अंगका बाधा मतकरो और अन्य बातोंसे क्रोध उपजावो परन्तु रावण अतिदृढ़है उसे क्रोध उपजना कठिन है ऐसे कह वे दोनों यक्षेन्द्र भव्यजीवों में है वात्सल्य जिनका प्रसन्नहै नेत्र जिनके मुनियों के समूहों के भक्त वैयाब्रतमें उद्यमी जिनधर्मी अपने स्थानक गए रामको उलहना देने पाए थे सो लक्षमणके वचनों से लज्जावान भए समभाव कर अपने स्थानक गए सो जाय तिष्ठे गौतम स्वामी कहे हैं हे श्रेणिक !जौलग निदोषता होय तोलग परस्पर प्रति प्रीतिहोय और सदोषताभए प्रीति भंग होय जैसे सूर्य उत्पात सहित होय तो नीका न लगे॥ इति सत्तरवां पर्व संपूर्णम् ।। अथानन्तर पूर्णभद्र मणिभद्रको शंतभाव जान सुग्रीवका पुत्र अंगद उसने लंकामे प्रवेश किया सो अंगद किहकंध कांड नामा हाथीपर चढ़ा मोतियोंकी माला कर शोभित उज्ज्वल चमरों से युक्त ऐसा सोहता भया जैसा मेघमाला में पूर्णमासीका चन्द्रमा सोहे, अति उदार महा सामन्त तथा स्कंध || इन्द्र नील यादिबड़ी ऋद्धिकर मंडित तुरंगों पर चढ़े कुमार गमनको उद्यमी भए और अनेक पयादे For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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