SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 752
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir पद्म पुराण प्राप्तभएहैं रावण तो निराहार होय देहविषे भी निस्पृह सर्वजगतका कार्यतज पोसे बैठाहै सो ऐसे शांत | चित्तको यह छिद्रपाय पापी पीड़ा चाहे हैं, सो यह योधावों की चेष्टा नहीं यह बचन पूर्णभद्रके मुन । माणिभद्र बोला अहो पूर्णभद्र रावणका इंद्रभी पराभव करिबे समर्थ नहींगवण मुन्दर लक्षणोंसे पूर्ण शांत स्वभावहै तब पूर्णभद्रने कही जो लंकाको विघ्न उपजाहे सो आपा दूर करेंगे यह कहकर दोनो। धीर सम्यकदृष्टि जिनधर्मी यचोंके ईश्वर युद्धको उद्यमी भए सो बानरवंशियोंके कुमार और उनके पक्षी देव सब भागे, ये दोनों यत्तेश्वर महा वायु चलाय पाषाण बरसावतेभए और प्रलय कालके मेघ समान गाजतेभए तिनकी जांघोकी पवनकर कपिदल सूके पानकी न्याई उडे तत्काल भागगए तिन केलारही ये दोनों यक्षेश्वर रामके निकट उलहना देनेको पाए सो पूर्णभद्र सुबुद्धि रामकी स्तुति कर कहते भए राजादशस्थ महा धर्मात्मा तिनके तुम पुत्र और अयोग्य कार्यके त्यागी सदा योग्यकार्योंमें उद्यमी शास्त्र समुद्रके पारगामी शुभ गुणोंसे सकलमें ऊंच तुम्हारी सेना लंकाके लोकोंको उपद्रव करे यह कहांकी बात जो जिसका द्रव्य हरे सो उसका प्राणहरे है यह घन जीवोंके वाह्य प्राणहें अमोलिक हीरे वैडूर्य मणि मूंगा मोती पद्मराग मणि इत्यादि अनेक रत्नोंसे भरीलंका उद्वेगको प्राप्त करी तब यह । बचन पूर्णभद्रके सुन रामका सेवक गरुड़केतु कहिये लक्षमण नीलकमलसमान सो तेजसे विविध रूप वचन कहताभया ये श्रीरघुचन्द्र तिनके राणी सीता प्राणसेभी प्यारी शीलरूप आभूषणकी घरणहारी। वह दुरात्मा रावण छलकर हर लेगया उसका पक्ष तुम कहा करो, हेयतेन्द्र हमने तुम्हारा क्या अप| राध किया और उसने क्या उपकार किया जो तुम भृकुटी बांकीकर और सन्ध्याकी ललाई समान For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy