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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | सो न पाई तब खेदखिन्न होय द्रुमसेन मुनिके निकट मुनिहोय महा तप किया सो स्वर्गमें देव होय महासुन्दर लक्षमणभया, और वह अनंगसरा चक्रवर्तीकी पुत्री स्वर्गलोकसे चयकर द्रोगामेघके विशल्या १७२१॥ भई और पुनर्वसुने उसके निमित्त निदान कियाथा, सो अब लक्ष्मण इसे बरेगा यह विशल्या इस नगरके इस देश में तथा भरतक्षेत्र में महा गुणवन्ती है पूर्वभवके तपके प्रभावसे महा पवित्रहै उसके स्नान का यह जलहै सो सकल विकारको हरे है इसने उपसर्ग सहा महातप किया उसका फल है उसके स्नान के जलसे जो तेरे देशमें वायु विषम विकार उपजाथा सो नाशभया ये मुनिके वचन सुन भरतने मुनि से पूछी हे प्रभो मेरेदेशमें सर्वलोकोंको रोगविकार कौन कारणसे उपजा तब मुनिने कही गजपुर नगर से एकव्यापारी महाधनवंत विन्ध्यनामासोरासभ(गधा)ऊंट भैंसालादेअयोध्याबाया और ग्यारह महीना अयोध्यामें रहा उसके एक भैंसा सो बहुत बोझके लादनेसे घायलभया तीब्र रोगके भारसे पीडित इस नगरमें मूवा सो अकाम निर्जराके योगसे अश्वकेतु नामा वायकुमार देव भया जिसका वाद्यावर्त नाम सो अवधि ज्ञानसे पूर्व भवको चितारा कि पूर्वभव विषमें असाथा सो पीठ कट रहीथी और महारोगोंसे पीडित मार्ग विषे कीचमें पडाथा सो लोकमेरे सिरपर पांव देय २ गए यह लोक महानिर्दई अब मैं देव भया सो में इनका निग्रह न करूं तो में देव काहेका,ऐसा बिचार अयोध्या नगरमें और सुकौशल देश में वायु रोग विस्तारा सो समस्त रोग विशल्याके चरणोदकके प्रभावसे विलय गया बलवानसे अधिक बलवानहै सो यह पूर्ण कथा मुनिने भरतसे कही और भरतने मो से कही सो में समस्त तुम को कही विशल्याका स्नान जलशीघहीमंगावो लक्षमणके जीवनेका अन्य यत्न नहीं इसभांति विद्याधरने For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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