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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म को चितार इस भांतिके वचन कहकर रुदनकरे कि में चक्रवर्तीके तो जन्मपाया और पूर्व जन्मके पापकर बनमें ऐसी दुख अवस्थाको प्राप्तभई इस भांति प्रांसुवोंकी वर्षा कर चतुर्मासिक किया और जे वृक्षोंसे टूटे फल सूक जांय तिनका भक्षणकरे और बेला तेला श्रादि अनेक उपवासोंसे क्षीण होय गया है शरीर जिसका सो केवल फल और जलसे पारणा करतीभई और एकही बार जल उसही समय फल यह चक्रवर्तीकी पुत्री पुष्पोंकी सेजपर सोवती और अपने केशभी जिसको चुभते सो विषम भूमिपर खेद सहित शयन करतीभई और पिताके अनेक गुणीजन रागकरते तिनके शब्द सुन प्रबोधको पावती सो अब स्याल आदि अनेक बनजरोंके भयानक शब्दसे रात्रि म्यतीत करती भई इसभांति तीन हजार वर्ष तप किया सूके फल तथा सूके पत्र और पवित्रजल आहार किये और महावैराग्यको प्राप्त होय खान पानका त्यागकर धीरता घर संलेषण मरण प्रारम्भा एक सौ हाथ भूमि पांवों से परे न जाऊं यह नियम धार तिष्ठी, आयु में छह दिन बाकी थे और एक अरहदास नामा विद्याधर सुमेरु की वन्दना कर के जावे था सो आय निकसा सो चक्रवर्ती की पुत्रीको देख पिताके स्थानक लेजाना विचारा संलेषणा केयोग से कन्याने मने किया तब अरहदास शीघ्र ही चक्रवर्ती पर जाय चक्रवर्ती को लेय कन्या पै आयो सो जिस समय चक्रवती पाया उस समय एक स्थूल अजगर कन्या को भखेथा सो कन्याने पिताको देख अजगरको अभयदान दिवायो और आपसमाधि धारण कर शरीर तज तीजे स्वर्ग गई पिता पुत्रीकी यह अवस्था देखकर बाईस हजार पुत्रों सहित पैराग्यको प्राप्तहोय मुनि भया, कन्याने अजगरसे क्षमाकर अजगर | को पीड़ा न होने दई सो ऐसी दृढ़ता उमही से बने और वह पुनर्वसु विद्याधर अनंगसरा को देखता भया For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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