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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir पद्म पुराण ॥७२ सरा बालक अकेली उस बनमें महाभयकर युक्त अति खेदखिन्न होती भई नदी के तीर जाय दिशा ! अवलोकन कर माता पिताको चितार रुदन करतीभई हायमैं चक्रवर्तीकी पुत्री मेरा पिता इन्द्रसमान उसके में अति लाडली दैवयोगसे इस अवस्थाको प्राप्तभई अब क्या करूं इस बनका ओड नहीं यह बनको देख दुःख उपजे हाय पिता महापराक्रमी सकल लोक प्रसिद्ध में इस बनमें असहाय पड़ी मेरी दया कौन करे हाय माता ऐसे महा दुःखसे मुझे गर्भ में गखी अब काहे से मेरी दया न कगे हाय मेरे परिवारके उत्तम मनुष्यहो एक क्षणमात्र मुझे न छोडते सो अब तज दीनी और मैं होती | ही क्यों न मरगई काहेसे दुःखकी भूमिका भई चाही मृत्यु भी न मिले क्या करूं कहां जाऊं में | पापिनी कैसे तिष्ठं यह स्वप्नहै कि साक्षातहै इस भांति चिरकाल विलाप कर महा विह्वल भई ऐसे विलाप किए जिनको सुन महादुष्ट पशुका भी चित्त कोमल होय यह दीनचित्त तूधा तृष.से दग्ध शोकके सागरमें मग्न फल पत्रादिकसे कीनी है आजीविका जिसने कर्मके योगसे उस बनमें कई शीतकाल पूर्णकिए कैसे हैं शीतकाल कमलोंके बनकी शोभाका जो सर्वस्व उसके हरगाहारे और जिन ने अनेक ग्रीष्मके आताप सहेकैसे हैं ग्रीष्मके अाताप सूके हैं जलोंकेसमूह और जले हैं दावानलासअनेक न अनेक वृत्त और जरे हैं मरे हैं अनेकजन्तु जहां और जिसने उसवनमें वर्षाकालभी बहुत व्यतीत किए जिससमय जलधाराके अंधकारसे दबगई है सूर्यकी ज्योति और उसका शरीर वर्षाका धोया चित्राम के समान होय गया कांतिरहित दुर्वल विखरे केश मलयुक्त शरीर लावण्यरहित ऐसाहोय गया जैसा सूर्य | के प्रकाशसे चन्द्रमाकी कलाका प्रकाश क्षीणहोय जाय कैथका बन फलोंसे नमीभूत वहां बैठी पिता For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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