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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir होयाए मस्तक चूमाछाती से लगाया तब हनूमान नमस्कारकर हाथजोड़ अति विनयकर जमा करावते भए एकक्षणमें औरही होयगए हनुमान कहे हैं हे नाथ में बाल बुद्धिकर जो तुम्हारा अविनय कियासो क्षमा करो और श्रीरामका किहकंधापुर श्रावनेका सकल वृत्तान्त कहा आप लंका के तरफ जावनेका वृत्तान्त कहा और कही में लंका होय कार्य कर आऊंडूं तुम किहकंधापुर जावो राम की सेवाकरो ऐमा कहकर हनूमान आकाशके मार्ग लंकाको चले जैसे स्वगलोक को देव जाय और राजा महेंद्र राणी सहित तथा अपने प्रसन्नकीर्ति पुत्र सहित अंजनीपुत्रीके गया अंजनीको माता पिता और भाई का मिलाप भया सो प्रति हर्षित भई फिर महेंद्र किहकंधापुर पाए सो राजा सुग्रीव विराधित आदि सन्मुख गए श्रीराम के निकट लाए राम बहुत आदरसे मिले जे राम सारिखे महंत पुरुष महातेज प्रतापरूप निर्मल चित्त हैं और जिन्होंने पूर्व जन्ममें दोनबत तप श्रादि पुण्य उपार्जे हैं तिनकी देव विद्याधर भूमिगोचरी सबही सेवाकरें हैं जे गर्बवन्त बलवन्त पुरुष हैं वे सब उनके वश होवें इसलिये सर्वप्रकार अपने मनको जीत सत्कर्ममें यत्नकरो, हे भव्यजीव हो उस सत्कर्म के फलकर सूर्यसमान दीप्तको प्राप्त होवो॥ । __अथानन्तर हनूपान आकाश में विमान में बैठे जाय हैं और मार्ग में दधिमुख नामा दीप आया जिसमें दघिमुख नामा नगर जहां दघि समान उज्ज्वल मन्दिर सुन्दर सुवरण के तोरण काली घटासमान सघन उद्यान पुरुषों से युक्त स्फटिक मणि समान उज्ज्वल जलकी भरी वापिका सोपानों कर शोभित कमलादिक कर भरी गौतमस्वामीराजा अंणिक से कहे हैं हे राजन इस नगरसे दूर वन वहां तृण बेल वृक्ष कांटों के ममह सूके वृक्ष दष्ट सिंहादिक जीवों के नाद महा भयानक प्रचण्ड पवन जिससे वृक्ष । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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