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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kallassagarsuri Gyanmandir परा 1६२३॥ बियोगरूप दावानल कर तप्तायमान आपके शरण पाया है आप शरणागत प्रतिपालक हैं यहसुग्रीव अनेक गुणोंकर शोभितहै हे रघुनाथ प्रसन्नहोय इसे अपनाकरो तुमसारखे पुरुषों काशरीर पर दुःखका नाशक है ऐसे जाबूनन्दके बचन सुन रामलक्षमण और विराधित कहते भए, धिक्कारहोवे परदारा रतपापी जीवों को रामने बिचारी मेरा और इसका दुःखसमानहै सो यह मेरा मित्रहोयगामें इसका उपकार करूं और यह पीछे मेरा उपकार करेगा नहींतो में निग्रंथी मुनिहोय मोक्षका साधन करूंगा ऐसा बिचारकररामसुग्रीव से कहते भए, हे सुग्रीव में सर्वथा तुझे मित्र किया जो तेरा स्वरूप बनाय आयाहै उसे जीत तेरा राज्य तुझे निहकंटक कराय दूंगा और तेरी स्त्री तोहि मिलायदूंगा श्रीर तेराकाम होय पीछे तूंसीता की सुध हमें पानदेना कि कहांहै तव सुग्रीव कहताभया हे प्रभो मेरा कार्यभए पीछे जो सातदिनमें सीताकी सुध न लाऊतो अग्निमें प्रवेश करूं यह बात सुन रामप्रसन्नभए जैसे चन्द्रमाकी किरणसे कुमद प्रफुल्लित। होय। रामकामुखरूप कमल फूलगयासुग्रीवके अमृतरूप वचनसे रोमांच खडे होयाए जिनराजके चैत्या लयमें दोनों घी मित्रमए यह बचन किया परस्पर कोई द्रोह न करे ॥ अथानन्तर रामलचमणस्थपर चढ़ अनेक सामन्तों सहित सुग्रीव के साथ किहकन्धपुर श्राए नगरके समीप डेराकर सुग्रीवने माया ॥ मयी सुग्रीव पै दूत भेजा सो दूतको उसने खेद दिया और मायामई सुग्रीव रथमें बैठ बड़ी सेना सहित युद्धके निमित्त निकसा सो दोनों सुग्रीव परस्पर लडे मायामई सुग्रीव और सांचे मुग्रीवके नानाप्रकार ॥ का युद्ध भया अन्धकार होय गया दोनोंही खेद को प्राप्तभए, घनी वेरमें मायामई सुग्रीवने सांचे सुग्रीव || के गदाकी दीनीसो गिरपडा तब वह मायामई सुग्रीव इसको मूया जान हर्षित होय नगरमें गया और For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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