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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्म पुराच ।। ५२६० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लक्षमण विचारता भया यह कोई राजकुमारी महाश्रेष्ठ मानों ज्योति की मूर्ति ही हैं सो महाशोक के कर पीडित है मन जिसका यह अपघात कर मरण बांधे है सो मैं इसकी चेष्टा छिपकर देखूं ऐसा विचारकर छिपकर के वृक्ष तले बैठा मानों कौतुक युक्त देव कल्पवृक्ष के नीचे बैठे उसही बट के तने सनी की सी चाल जिसकी और चन्द्रमा समान है बदन जिसका कोमल है अंग जिसका ऐसी वनमाला आई जलसे चला वस्त्रकर फाँसी बनाई और मनोहर बाणीकर कहती भई हो इसवृक्ष के निवासी देवता पाकर मेरी बात सुनो कदाचित बनमें विचरता लक्षमण यावे तो तुम उसे कहियो जो तुम्हारे विरह महा दुःखित बनमाला- तुम में चित्त लगाय बट के वृक्ष में वस्त्र की फांसा लगाय मरण को मात्र भई हमने देखी और तुमको यह सन्देशा कहा है कि इस भवमें तो तुम्हारा संयोग मुझे न मिला अब परभव में तुमही पति हूजियो यह वचन कह बृक्षकी शाखा सों फांसी लगाय आप फांसी लेने लगी, उसही समय लक्ष्मण कहताभया हे मुग्धे मेरी भुजाकर श्रालिंगन योग्य तेरा कण्ठ उसमें फांसी काहे को डारे है है सुन्दरवदनी परमसुन्दरी में लक्ष्मण हूं जैसा तेरेश्रवण में आया है तैसा देख और प्रतीत न श्रावे तो निश्चय कर लेहु ऐसा कह उसके करसे फांसी हर लीनी जैसे कमल झागों के समूहको दूर करे तब वह लज्जाकर युक्त प्रेमकी दृष्टि कर लक्षमण को देख मोहित भई कैसा है लक्षमण जगत् के नेत्रोंका हरणहारा है रूप जिसका परम आश्चर्यको प्राप्त भई चित्त में चितवे है यह कोई मुझपर देवोंने उपकार किया मेरी अवस्था देख दयाको प्राप्त भए जैसा में सुनाथा तैसा देव योग से यह नाथ पाया जिसने मेरे प्राण बचाए ऐसा चिंतक्न करती बनमाला लक्षमण के मिलाप से अत्यन्त अनुराग को प्राप्त भई For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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