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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराण ५२ किया। और श्रीरामचन्द्र यक्षकी सेवा से अतिप्रसन्नहोय आगे चलेदेवोंकीन्याई रमते नानाप्रकारकोकथामें श्रासक्तनाना प्रकार के फलों के रसके भोक्ता पृथिवी पर अपनी इच्छा से प्रमते, मृगराज तथा मजराजों से भरा जो महाभयानक बन उसे उलंघ विजयपुर नामा नगराए उससमय सूर्य अस्तभया । अन्धकार फैला आकाश में नक्षत्रों के समूह प्रकट भए, नगरसे उत्तर दिशा की तरफ न अति निकट न अति ! दूर कायरलोगों को भयानक जो उद्यान वहां विराजे । .. अथानन्तर नगर का राजा पृथिवीधर जिस के इन्द्राणी नामा राणी नीके गुणों से मंडित उस के । वनमाला नामा पुत्री महासुन्दर सो बालअवस्था ही से लक्ष्मण के गुलं सुनअति आसक्तमई फिर सुनी दशरथ ने दीक्षा घरी और केएक के वचनसे भरत को सज्य दिस-राम लक्ष्मण परदेश निकसे हैं ऐसा विचार उसके पिता ने कन्याका इन्द्रनगर को सजाउसका पुत्र जो बालमित्र महासुन्दर उसे देनी विचारी सोयह वृत्तान्त बनमालाने सुमा हृदय में विराजे हैं लक्मम जिसके तक्मनमें विकारी कमसीलेय मरमा भंला परन्तु अन्य पुरुष को सम्बन्ध शुभ नहीं यह विचार सूर्य से संभाल करती गई हे मानो अब तुम मस्त हो जावो शीम ही सत्रि को पगबहु अपदिमकाएक चम मुझ से समान बीते है सो मानों इसके चितवन कर सूर्य अस्त भया कन्या की उपवास है सनपा समय माता पिता की माझा लेक्श्रेष्ठ स्वमें बढ़ बन यात्रा को बहाना कर सत्रि में यहां पाई जाशमलरमा तिठे वे सो इसने मानकर उस ममें जागरण किया जा सकललोकसो गए तब यह भन्ने अन्दर वरती बनकी मृगी समान रेसले निकस क्नमें चली सो यह महासती पानी इसके शरीर की सुगन्धता कर न सुगन्धित होप नया For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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