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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म ॥५२॥ अथानन्तर महा सुगन्ध कोमल सांथरे पर श्रीरामचन्द्र पौड़े थे सो जागकर लक्षमणको न देख बुरा जानकी को पूछतेभए हे देवी यहां लक्षमण नहीं दीखे है रात्रि के समय मेरे सोवने को पुष्प पल्लवों का कोमल सांथरा बिछाय आप यहांही तिष्ठता था सो अब नहीं दीखे है तब जानकीने कही हे नाथ ऊंचा स्वर कर बुलाय लेवो तब आप शब्द किया हे भाई हे लक्षमण हे बालक कहां गया शीघ्र आब तब भाई बोला हे देव आया बनमाला सहित बड़ े भाई के निकट आया आधी रात्रीका समय चन्द्रमा का उदयभया कुमद फूले शीतल मन्द्र सुमन्त्र पवन बाजने लगी उस समय बनमाला कोपल सम्मान कोमल कर जोड़ वस्त्र कर वेढ़ा है सर्व अंग जिसने लज्जाकर नम्रीभूत है मुख जिसका जाना है समस्त कर्तव्य जिसने महा विनयको घरती श्रीराम और सीता के चरणारविन्दको वन्दती भई सीता लक्ष्मण को कहती भई हे कुमार तैने चंद्रमावी मता करी तब लक्षमण लज्जाकर नीचा होय गया श्रीराम जानकी कहतेभए तुम कैसे जानी तत कही हे देव जिस समय चन्द्रमा का उद्योत भया उसकी समय कन्या सहित उत्तमण माया तब श्रीराम सीता के वचन सुन प्रसन्न भए । अथानन्तर बनमाखा महा शुभ शील इनको देख आश्चर्यकी भरी प्रसन्न है मुखचन्द्रमा जिसका फूल रहे हैं नेत्र कसल जिसके सीता के समीप बैठी और ये दोनों भाई देवों समान महा सुन्दर निदा रहित सुखसे कथा वार्ता करते विष्ठे हैं और जनमाला की सखी जागकर देखे तो सेज सूनी कन्यानहीं तब भगकर खेन्द्रित भई और महा व्याकुल होय रुदन करती भई उसके शब्द कुछ योघा जागे मायुध लमाय तरंग त्वद् दसों दिशाको दौड़ और पमादे दौड़ नरकी और धनुष है हाथमें जिनके दशों दिशा For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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