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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म पुराख बन्धाया तब केकई कहतीभई हे पुत्र उठो अयोध्या चलो राज्य करो तुम बिन मेरे सकलपुर बन समान ४८३ है और तुम महाबुद्धिवान हो भरत से सेवा लेवो हम स्त्री जन निकृष्ट बुद्धि हैं मेरा अपराध क्षमाकरो तत्र राम कहते भये हे मात तुमतो सब बातों में प्रवीण हो तुम क्या न जानो हो क्षत्रियोंका यही विरद है जाववत न चूकें जो कार्य विचारों उसे और भांति न करें हमारे तात ने जो वचन कहा सो हमको र तुमको निवाहना इस बात में भरतकी आकीर्ति न होयगी फिर भरत से कहा कि हे भाई तुम चिंता मत करो तू अनाचार से शंके है सो पिता की आज्ञा और हमारी आज्ञा पालने से अनाचार नहीं ऐसे कहकर वन विषे सब राजावों के समीप भरत का श्री रामने राज्याभिषेक किया और केकई को प्रणाम कर बहुत स्तुति कर बारम्बार संभाषण कर भरत को उरसे लगाय बहुत दिलासाकर मुशकिल से विदा किया के कई और भरत राम लक्षमण सीता के समीप से पीछे नगरको चले भरत राम की आज्ञा प्रमाण प्रजाका पिता समान हुवा राज्यकरे जिसके राज्यमें सर्वं प्रजाको सुख कोई अनाचार नहीं ऐसा नःकंटक राज्य है तोभी भरतको चणमात्र राग नहीं तीनों काल श्री अरनाथ की बन्दना करे और मुनियों के मुखसे धर्म श्रवण करे द्युति भट्टारक नामा जे मुनि अनेक मुनि करे हैं सेवा जिनकी तिनके निकट भरतने यह नियम लिया कि रामके दर्शनमात्र सेही मुनित्रत धरूंगा || अथानन्तर मुनि कहते भये कि हे भरत कमल सारिखे हैं नेत्र जिनके ऐसे राम जवलग न आवें तबलग तुम गृहस्थ के व्रत घरो जे महात्मा निर्ग्रन्थ तिनकामाचरण अतिविषम है सो पहिले श्रावक के व्रतपालने उससे यतिका धम सुखसों सधे है जब बृद्ध अवस्था श्रावेगी तब तप करेंगे यह वार्ता कहते अनेक For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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