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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म ॥ ४॥ जबुद्धि मरणको प्राप्तभए महा अमोलक रत्नसमान यतीका धमे जिसकी महिमा कहनेमें न आवे उसे जे घारे, तिनको उपमा कौनकी देवें यतिके धर्मसे उतरता श्रापकका धर्म है सो में प्रमादरहित करेहैं वे धन्य हैं यह अणुव्रतभी प्रबोधका दाताहै जैसे रत्नद्वीप में कोई मनुष्य गया और वह जो रत्नलेय सोई देशान्तरमें दुर्लभ है तैसे जिन धर्म नियमरूप रत्नोंका दीपहै एसमें जो नियम लेय सोई महाफल का दाताहै जो अहिंसारूप रत्नको अंगीकारकर जिनवरको भक्तिकर अरचे सो सुरनरके सुख भोग मोक्षको प्राप्त होय और जो सत्यव्रतका धारक मिथ्यात्व का परिहारकर भावरूप पुष्पोंकी मालाकर जिनेश्वर को पूजे है उसकी कीर्ति पृथिवी में विस्तरेहै और आज्ञा कोई लोप न सके और जो परधनका त्यागी जिनेन्द्रको उरमें धारे बारम्बार जिनेन्द्रको नमस्कारकरे सो नव निधि चौदह रत्नका स्वामीहोय अक्षयनिधि । पावें और जो जिनराजका मार्ग अंगीकारकर परनारीका त्यागकरे सो सबके नेत्रोंको श्रानन्दकारी मोक्ष लक्षमी का वर होय और जो परिग्रह का प्रमाणकर संतोष घर जिनपतिका ध्यानकर सो लोक पूजित अनन्त महिमाको पावे और आहार दानके पुण्यकर महा सुखी होय उसकी सब सेवाकरें और अभयदान कर निर्भय पद पावे सर्व उपद्रसे रहित होय और ज्ञानदानकर केवल ज्ञानीहोय सर्वज्ञपद, पावे और औषधि दानके प्रभावकर रोगरहित निर्भयपद पावे और जो रात्रीको आहार का त्यागकरे सो एक वर्ष में छह महीना उपवास का फल पावे यद्यपि गृहस्थ पद के प्रारम्भ में प्रवृते है तोभी शुभगति के सुख पावे जो त्रिकाल जिनदेवकी बन्ददाकरे उसके भाव निर्मल होंय सर्व पापका नाशकरे और जो निर्मलभाव रूप पुष्पोंकर जिननाथको पूजे सो लोकमें पूजनीक होय और जो भोगी पुरुष कमलादि. जलके पुष्प For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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