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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चाहें परंतु यह भूले नहीं सर्व लीला विलास जे अपने राजमहलके मध्य गंधमादन पर्वतके शिखर । HC समान ऊंचा जो जिनमन्दिर उसके एक भके माथेमें रहे कांति गहित होगगाहे सरीर जिसकापंडितों कर मंडित यह विचार करे हेकि विमारहै इस विद्यावर पदके ऐश्वर्यकोजो एक चणमात्र विलाय गया | जैसे शाद ऋतुके मेधोके समूह अत्यन्त ऊंचे होने परन्तु क्षणमा विलय जायतैसे वेशन वेहाथीवे योगा वे तुरंग सेमस्त तृण समान होगए पूर्व अनेक बेर अदभुत कार्य के करणारे अथवा कमों की यह | विचित्रताहै कौन पुरुष अन्यथा करनके समर्थ हे इस लिये जगतमें कर्म प्रबलहें में पूर्व नाना विधि | भोग सामग्रीयों के निपजावनहारे कर्म उपार्जेथे तो अपनाफल देकर खिरि गए जिससे यह दशा वरते हे रण संग्राममें शूरवीर सामंतों का भरण होय तो भला जिसकर पृथ्वी में अपयश न होय में जन्म से लेकर शत्रुओंके सिरपर चरण देकर जिया सो में इंद्र शत्रु का अनुचर होयकर कैसे राज्य लक्ष्मी मोगू इस लिए अब संसारके इन्द्रियजनित सुखोंकी अभिलाषा तजकर मोक्षपद की प्राप्ति के कारण ले मुनिव्रत विनको अंगीकार करूं रावण शत्रुका भेष घर मेरा महामित्र पाया जिसने मुझे प्रतिबोध दिया में प्रसार सुख के श्रास्वादों में श्रासक था ऐसा विचार इन्द्र ने किया उसही समय निरवाण संगम नामी चरण मुनि विहार करतेहुचे त्राकाश मार्गसे जातेथे सो चैत्यालयोंके प्रभावकर उनका श्रागे गमन न हो सका तब वह चैत्यालय जान नीचे उत्तरे भगवानके प्रतिबिंबका दर्शन किया मुनिचारज्ञान के धारकये सो उनको राजा ने उठकर नमस्कारकिया मुनिकेसमीपजावेग बहुत देरतक अपनी निन्दा करीसर्व संतारका वृतांत जाननेहारे मुनिने परम अमृतरूप परमासे इंद्रको समाधान किया कि हे इन्द्र For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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