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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र जैसे अरहटकी घड़ी भरी रीती होयहै और रीती भरी होयहै । तैसे यह संसारकी मायाक्षणभंगुर है इस पुराण के और प्रकार होनेकाआश्चर्य नहीं मुनिकेमुखसे धर्मोपदेश सुन इंद्रने अपने पूर्वभवपूछे तब मुनिकहेहें कैसे हैं मुनि अनेक गुणोंके समूहसे शोभायमान, हे राजा अनादिकालका यह जीव चतुरगति में भ्रमण करे हैं जो अनन्तभव घरे सो केवलज्ञान गम्यहै कैएक भव कहिये हैं सो सुनों शिखापद नामा नगरमें एक मानुषी महा दलिद्रनी जिसका नाम कुलवन्ती सो चीपड़ी अमनोग्य नेत्र नाक चिपटी अनेक व्याधिकी भरी पापकर्म के उदयसे लोगों की जूठखायकर जीवे खोटे बस्त्राभागिनी फाटा अङ्ग महा रूक्ष खोटे केश जहां जाय वहां लोक अनादरें हैं जिसको कहीं सुख नहीं अन्तकाल में शुभमति होय एक महूर्त का अनशन लिया प्राण त्याग कर किंपुरुष देव के शील घरा नामा किन्नरी भई वहां से चय कर रत्न नगर में गोमुखनामा कलुंबी उसके घरिनी नामा स्त्री उसके सहस्रभाग नामा पुत्र भया सो परम सम्यक्त को पाय कर श्रावक के व्रत श्रादरे शुक्रनामां नवमा स्वर्ग वहां उत्तम देव भया वहां से चयकर महा विदेह क्षेत्रके रत्न संचयनगर में मणिनामा मन्त्री उसके गुणाबली नामा स्त्री उसके सामन्तवर्ध नामा पुत्र भयो सो पिता के साथ वैराग्य अंगीकार किया अति तीव्र तप किये तत्वार्थ में लगो है चित्त जिसका निर्मल सम्यक्त का धारी कषाय रहित बाईस परीषह सहकर शरीर त्याग नवप्रीवक गया अहमिन्द्रके बहुतकाल सुख भोगकर राजा सहसार विद्याधरके राणी हृदया सुन्दरी उनके तू इन्द्रनामा पुत्रभया रथनूपुर नगरमें जन्मलियापूर्वले अभ्यासकर इन्द्रके सुखविषे मनाशक्तभया सो तू विद्याधरोंका अधिपति इन्द्र कहोयो अब तू वृथा मनमें खेद करे है जो में विद्यामें अधिकथा सौशा For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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