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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्म पुराण ॥ २३८९।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देखने से हमोर नेत्र सफल भए धन्य तुम्हारे माता पिता जिनसे तुम्हारी उत्पति भई कुन्दके पुष्प समान उज्ज्वल तुम्हारी कीर्ति तुम समर्थ और चमावान दातार और निगर्व ज्ञानी और गुणप्रिय तुम जिन शासन के अधिकारीहो तुमने हमको जो कही यह तुम्हारा घरहे और जैसे इंद्र पुत्र तैसे मैं सो तुम इन बातोंके लायकहो तुम्हारे मुखसे ऐसेही बचन दरें तुम महाबाहु दिग्गजकी सूंड समान भुजा तुम्हारी तुम सारिखे पुरुष इस संसार में विरले हैं परंतु जन्मभूमि माता समान है सो बाडी न जाय जन्मभूमि का वियोग चित्तको कुल करे है तुम सर्व पृथ्वी के पतिहो परंतु तुमको भी लंका प्रिय मित्र बांधव और समस्त प्रजा हमारे देखने के अभिलाषी वनेका मार्ग देखे है इस लिये हम स्थनपुरही आंगे और चित्त सदा तुम्हारे समीपही है है देवनके प्यारे तुम बहुतकाल पृथ्वीकी निर्विघ्नरचा करो तब रावण ने उस ही समय इन्द्रको बुलाया और सहमारके लार किया और आप रावण कितनीक दूर तक सहस्रारको हुंचाने गये और बहुत विनयकर सीख दीनी सहस्रार इन्द्रको लेकर लोकपालों सहित विजयागिरि में आए सर्वराज ज्योंका त्योंही हे लोकपाल आयकर अपने २ स्थानक बैठे परन्तु मानभंगसे असता को प्राप्त भए १ विजया के खोक इन्द्र के लोकपाल को और देवोंको देखें त्यों २यह लज्ना कर नीचे होजांय और इंद्रभी न तो रथनुपुरमें प्रीति न राखियों में प्रीति न उपवनादिमें प्रीति न लोक पालोंमें प्रीति न कमलोंके मकरंद पीत होरहा है जल जिनका ऐसे जे मनोहर सरोवर तिनमें प्रीति और न किसीकी क्रीड़ा विषे प्रीति यहांतक के अपने शरीर से भी प्रीति नहीं लज्जाकर पूर्ण है चित्त जिस का सो उसको उदास जान लोक अनेक विधिकर प्रसन्न किया चाहें और कथाके प्रसंगसे वह बात भुलाया For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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