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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीप आए वृद्धोंको आगे कर तिनके पीछे जाय नमस्कार कर कहते भए कि हे नाथ लङ्का के लोग Mr. अजितनाथ के समय से आपके घरके शुभ चिन्तक हैं सो स्वामीको अति प्रवल देख अति प्रसन्न भए हैं इस प्रकार भांति भांति की प्रासीस दीनी तब रावणने बहुत दिलासा देकर सीख दीनी सो रावण के गुणगावते अपने अपने घरों को गये ॥ अथानन्तर रावणके महलमें कौतुकयुक्त नगरकी नरनारी अनेक श्राभूषण पहिरे रावणके देखने की इच्छासे सर्वघरके कार्य छोड़ २ पृथ्वीनाथ के देखनेको पाई रावण वैश्रवण के जीतनेहारे तथा यम विद्याधर के जीतनेहारे अपने महलमें राजलोक सहित सुखसों तिष्ठे, महल चूड़ामणि समान मनोहर है और भी विद्याधरोंके अधिपति यथायोग्य स्थामकमें अानन्द से तिष्ठे देवन समान हैं चरित्र जिनके॥ __ हे श्रेणिक!जो उज्ज्वलकर्मके करणहारे हैं तिनका निर्मलयश पृथिवी विषे होय है नाना प्रकार के रत्नादिक संपदा का समागम होय है और प्रबल शत्रुओंका निर्मूल होय है सकल त्रैलोक्यमें गुण विस्तरे है इस जीवके प्रचण्ड वैरी पाँच इंद्रियोंके विपयहें जो जीवकी बुद्धि हरें हैं और पापोंका बन्ध करें हैं यह । इन्द्रियोंके विषय धर्मके प्रसादसे वशीभूत होयह और राजाओंके बाहिरले बैरी प्रजाके बाधक ते भी प्राय पावोंमें पड़े हैं ऐसा मानकर जो धर्मके विरोधी विषयरूप बैरी हैं वे विवेकियोंको वश करनेयोग्य हैं तिनका सेवन सर्वथा न करना। जैसे सूर्यकी किरणोंसे उद्योत होते हुवे भली दृष्टिवाले पुरुष अन्धकारसे व्याप्त औंड़े खाड़ेमें नहीं पड़े हैं तैसेजे भगवान्के मार्ग में प्रवर्ते हैं तिनके पापबुद्धि की प्रवृति नहीं होय है। किहकन्धपर में राजा सूर्यरज बानरवंशी तिनकी राणी चन्द्रमालिनी अनेक गुणोंमें पूर्ण तिसके बाली For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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