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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्म पुराण १६७ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हैन पर्वत अन्तरद्वीप के सर्व विद्याघर राक्षस आए समुद्रको देखकर विस्मयको प्राप्त भए कैसा है समुद्र नहीं दीखे है पार जिसका श्रति गम्भीर है महामत्स्यादि जलचरों कर भरा है तमाल बन समान श्याम है पर्वत समान ऊंची ऊंची उठे हैं लहर के समूह जिस विषे पाताल समान ऊंचा अनेक नाग नायकों कर भयानक नाना प्रकारके रत्नोंके समूह कर शोभायमान नाना प्रकारकी अद्भुत चेष्टाको घारे । यद्यपि लंकापुरी अति सुन्दर है तथापि रावणके आनेसे अधिक समारी गई है अति देदीप्यमान रत्नों का कोट है गम्भीर खाई से मण्डित है कुदके पुष्प समान यति उज्वल स्फटिक मणि के महल हैं जिन में इन्द्र नीलमणियों की जाली शोभे हैं और कहूं इक पद्मराग मणियोंके थरुण महत्तहैं कहीं एक पुष्पराग मणियों के महल हैं कहीं एक मरकत मणियों के महिल हैं इत्यादि अनेक मणियों के मन्दिरों से लङ्का स्वर्गपुरी समान है नगरी तो सदाही रमणीक है परन्तु घनी के आनेसे अधिक बनी है रावण ने अति हर्षसे लंका में प्रवेश किया रावणको किसी की शंका नहीं पहाड़ समान हाथी तिनकी अधिक शोभावनी है और मन्दिर समान रत्नमई रथ बहुत समारे गए हैं अश्वोंके समूह ह्रींसते चलायमान चमर समान है पूच्छ जिनकी और विमान अनेक प्रभा को घरे इत्यादि महा विभूति से रावण याया चन्द्रमा समान उज्वल सिरपर बत्र फिरते अनेक ध्वजा पताका फहरती बन्दीजन के समूह विरद बखानते महामंगल शब्दहोते वीण बांसुरी शंख इत्यादि अनेकवादित्र बाजते दशदिशा और आकाश शब्दायमान हो रहा है इस विधि लंका में पधारे तब लंका के लोग अपने स्वामी का आगमन देख दर्शनके लालसी हाथ में अर्ध लीए पत्रफल पुष्परत्न लीए अनेक सुन्दर वस्त्र आभूषण पहरे राग रंग सहित रावण के For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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