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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्म पुराण ।।१६६।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गए जैसे अभ्यास बिना विद्या भूलजाय और यमभी इन्द्र का सत्कार पाय और असुर संगीत नगरका राज पाय मान भंगका दुःख भूल गया मनमें विचारने लगा कि मेरी पुत्री महा रूपवन्ती सो तो इन्द्र के प्राणोंसे भी प्यारी है और मेरा और इंद्रका बड़ा सम्बन्ध है सो मेरे क्या कमी है । रावण ने किकन्धपुर तो सूर्यरज को दीया और किहकुपुर रचरज को दीया दोनों को सदा के हितु जान बहुत आदर कीया रावण के प्रसाद से बानवंशी सुखसे तिष्ठे रावण सब राजों का राजा महा लक्ष्मी और कीर्त्ति को घरै दिग्विजय करे बड़े २ राजा दिनप्रति चाय चाय मिलें सो रावण का कटक रूप समुद्र अनेक राजावों की सेना रूपी नदी से पूरित होता भया और दिन दिन विभव अधिक होतीभई जैसे शुक्लपक्षका चन्द्रमा दिन दिन कलाकर बढ़ता जाय तैसे रावण दिनदिन बढ़ताजाय पुष्पक नामा विमानपर आरूढ़ होय त्रिकूटाचल के शिखर पर चाय तिष्ठा कैसा है विमान रत्नों की माला से मण्डित है और ऊंचे शिखरोंकी पंक्तिसे विराजे है जो शीघ्र जहां चाहे वहां जाय ऐसे विमान का स्वामी रावण महा धीर्यता कर मण्डित पुण्यके फलका है उदय जिसके जब रावण त्रिकूटाचल के शिखर सिधारे सब बातों में प्रवीण तब राक्षसों के समूह नानाप्रकार के वस्त्राभूषण कर मण्डित परम ह को प्राप्त भये सर्व राक्षस रावण को ऐसे मङ्गल वचन गम्भीर शब्द कहते भये हे देव तुम जयवन्त होवो नन्द को प्राप्त होवा चिरकाल जोवो वृद्धिको प्राप्त होवो उदयको प्राप्त होवो निरन्तर ऐसे मङ्गल वचन गम्भीर शब्द कर कहते, भए कई एक सिंह शारदूलोंपर चढ़े कई एक हाथी घोड़ों पर चढ़ े कई एक हंसों पर चढ़ प्रमोदकर फूल रहे हैं नेत्र जिनके देवों कैसा थाकार घरे जिनका तेज आकाश विषे फैल रहा For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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