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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । शार्दुल बिक्रीड़ित । येनेदं जगदापदाम्बुधिगतं कुर्वीत मोहो हठात् येनेते प्रतिजन्तु हन्तुमनसः क्रोधादयो दुर्जयाः । येन भ्रातरियं च संसृतिसरित् संजायते दुस्तरा स्तजानीहि समस्तदोषविषमं स्त्रीरूपमेतद्धवम् ११७ अर्थः--जिसस्त्रीके रूपकी सहायतासे मोह, जवर्दस्ती मनुष्यको नानाप्रकारके दुःख देता है तथा उसीरूपकी सहायतासे समस्तजीवोंके नाशक क्रोधादि कषाय दुर्जय होजाते हैं और उसीरूपकी सहायतासे संसार रूपीनदी तिरी नहीं जासक्ती अर्थात् अथाह होजाती है इसलिये आचार्य उपदेश देते हैं कि हे भव्यो उसस्त्रीके रूपको समस्तदोषों से भी भयंकर समझो। भावार्थ:-जितने भर संसारमें दोषहैं वे किसीन किसी अहितको तो अवश्यही करते हैं परन्तु स्त्रीका रूप भयंकर अहितको करता है इसलिये हितैषियोंको कदापि स्त्रीके रूपमें नहीं फंसना चाहिये ॥ ११७ ॥ मोहव्याधभटेन संसृतिवने मुग्धेणवंधापदे पाशाः पंकजलोचनादिविषयाः सर्वत्र सजीकृताः । मुग्धास्तत्र पतन्ति तानपि वरानास्थाय वांछन्त्यहो हा कष्टं परजन्मनेपि न विदः कापीति धिङ्मूर्खताम् अर्थः-इस संसारचनमें भोलेजीवरूपीमृगोंको वांधकर दुःखदेनेकेलिये मोहरूपीसुभट चिड़ियामारने सवजगह लोचनादिविषयरूपीजाल फैला रक्खे हैं और उनाविषयरूपीजालॉको श्रेष्ट मानकर भोले जीव उनमें आकर फसजाते हैं यह बड़े दुःखकी बात है किन्तु आत्माके स्वरूपको जाननेवाले विहान् स्वप्नमें भी उन जालों में नहीं फंसते और परलोककेलिये भी उन विषयों को हितकारी नहीं समझते इसलिये आचार्य कहते हैं कि मूर्खताकेलिये धिकार है। भावार्थ:--जिसप्रकार चिड़ियामार कुछ चावल आदि डालकर बनमें जाल बिछादेते हैं उसमें चावलों के लोलुपी नानाप्रकारके कबूतर आदि पक्षी फंसजाते हैं उसही प्रकार संसारमें मोहके उदयसे मुग्धपुरुष 1000००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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