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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥६१॥ 1००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००.04.000000000 पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । विषयोंमें प्रवृत्त होजाते हैं तथा नानाप्रकारके दुःखोंको भोगते हैं किन्तु बुद्धिमानपुरुष विषयों के दुःखोंको जानकर विषयोंमें नहीं फंसते हैं तथा उनविषयोंकी आकांक्षा भी नहीं करते इसलिये सदा सुखी रहते हैं अतः विहानोंको विषयोंकी तरफ कदापि ऋजु नहीं होनाचाहिये ॥ ११८ ॥ एतन्मोहठकप्रयोगविहितभ्रान्तिभ्रमचक्षुषा पश्यत्येषजनोऽसमंजसमसद्बुद्धिर्भुवं व्यापदे । अप्येतान्विषयाननन्तनरकक्लेशप्रदानस्थिरान्यच्छश्वत्सुखसागरानिवसतश्चेतःप्रियान्मन्यते ॥११९॥ अर्थः-यहकुबुद्धिमनुष्य मोहरूपी जो ठग उसके प्रयोगसे उत्पन्नहुए भ्रमसे, भ्रान्त जो नेत्र उससे विपरीत ही देखता है तथा विपरीत देखनेसे नानाप्रकारके दुःखोंका अनुभव करता है तो भी अनन्तनरकोंकेदुःखों को देनेवाले तथा विजलीकेसमान चंचलइनविषयोंको स्थिर तथा निरन्तर सुख केदेनेवाले और चित्तको प्रिय मानता है। भावार्थ:-जिसप्रकार कोईबैरी किसीमनुष्यपर मंत्रादिका प्रयोग करता है तो उससे उसके नेत्र घूमने लगजाते हैं तथा वह नानाप्रकारकी आपत्तियोंको भोगता है उसहीप्रकार यहकुबुद्धिजन मोहरूपीबैरीके प्रयोगसे विषयोंमें प्रवृत्त हो जाता है तथा समस्तचीजें उसको विपरीत ही सूझ निकलती हैं तथा उसीविपरीतताके सबब वह नानादुःखोंको भोगता है तो भी विषयोंको अच्छा मानता है यह कितने दुःखकी बात है ॥११॥ शार्दूल विक्रीडित । संसारेऽत्र घनाटवीपरिसरे मोहष्ठकः कामिनीक्रोधाद्याश्च तदीयपेटकमिदं तत्सन्निधौ जायते । प्राणी तद्विहितप्रयोगविकलः तद्वश्यतामागतो न खं चेतयते लभेत विपदं ज्ञातुः प्रभोः कथ्यताम् ॥१२० अर्थः-इससंसाररूपी विस्तीर्णचनमें ठगतो मोह है और स्त्री तथा क्रोध मान माया आदि उसकेपास प्राणियोंको ठगनेकी सामिग्री है, (अर्थात् स्वीक्रोधादिकारणोंसे ही वह प्राणियोंको ठगता है) तथा प्राणी उसके ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ 11६१॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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