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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥५९॥ www.kobatirth.org पचनन्दिपश्चविंशतिका ! अर्थः—यह स्त्रीका शरीर विष्टा मूत्र तथा नानाप्रकारके कीड़ोंकर व्याप्त और प्रचलघृणाको पैदा करनेवाले आंत मांस आदिकर पूरित तथा वीर्य रक्त आदिसे पुष्ट ऐसे खोटे माता के गर्भ से उत्पन्नहुवा है और स्वयं भी वह स्त्री नानाप्रकारके खोटे वीर्य रक्त आदिकर बनी हुई है तथा मल आदिसे युक्त है तो भी नीचविद्वानकवि ऐसीस्त्रीको चन्द्रमुखी कहते हैं यह बड़े आश्रर्यकी बात है ॥११४॥ शिखरिणी । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कचा यूकावासा मुखमजिनवद्भास्थिनिचयः कुचौ मांसोच्छ्रायौ जठरमपि विष्टादिघटिका । मलोत्सर्गे यंत्रं जघनमवलायाः क्रमयुगं तदाधरस्थूणे किमिह किल रागाय महताम् ॥ ११५ ॥ अर्थः—स्त्रीके केशतो जुबांके घर हैं मुख, चर्मसे वेष्टित हाड़ोंका समूह स्तन मासके पिण्ड हैं उदर विष्टा आदि खराब चीजका घरहै योनिस्थान, मूत्र आदिके वहनेका नाला है और दोनोंचरण उसयोनिस्थान के ठहरने के लिये खंभोकेसमान हैं इसलिये ऐसी खराबस्त्री में विद्वान पुरुष कदापि राग नहीं करसके ॥१६५॥ द्रुतविलम्बित | परमधर्मनदाज्जनमीनकान्शशि मुखी बडिशेनसमुद्धतान् । अतिसमुल्लसिते रतिमुर्मुरे पचति हा हतकः स्मरधीवरः ॥ ११६॥ अर्थः- आचार्य कहते हैं कि यह हिंसक कामदेवरूपीधीवर जीवरूपमछलियों को उत्कृष्टधर्मरूपीतालाब से निकालकर स्त्रीरूपीमांससहितकांटेपर लटकाकर अत्यंत प्रज्वलित संभोगरूपीभूभर में भूंजती है यह बड़े दुःखकी बात है। भावार्थ:- जिसप्रकार धीमर जिह्वा इन्द्रियकी लोभीमछलियोंको मसिलिप्तकांटेसे बाहर निकालकर भूभर में भूंजता है उसीप्रकार यह कामदेव भी जीवों को धर्मसे हटाकर स्त्रियोंके जाल में फंसा देता है इसलिये भव्यजीवोंको चाहिये कि वे सर्वथा प्राणों के घातकरनेवाले इसकामदेवको अपने हृदय में फटकने तक न देवे ॥ ११६॥ For Private And Personal ॥५९॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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