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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पअनन्दिपश्चविंशतिका । दोष स्वभावसे ही रहे आते हैं इसलिये जो कविका काव्य उनको मूलमें उड़ा देता है तथा सम्यग्ज्ञानका उत्पन्न करनेवाला होता है वास्तवमें वही कार्यकारी समझना चाहिये अर्थात् जिसमें वीतरागपनेका वर्णन होवे वही काव्य फलके देनेवाला है और शृंगारादिरस तो समस्तजगतको मोहके उत्पन्न करनेवाले तथा दुःखके देनेवाले हैं इसलिये भव्योंको चाहिये कि वे वीतरागभावको दर्शानेवाले शास्त्रोंका ही अभ्यास करें ॥११२॥ वसंततिलका कालादपि प्रसृतमोहमहांधकारे मार्ग न पश्यति जनो जगति प्रशस्ते । क्षुद्राःक्षिपन्ति हाश दुःश्रतिधूलिमस्य नस्यात्कथं गतिरनिश्चितदुष्पथेषु ॥११३॥ अर्थः-आनादिकालसे फैलेहुवे मोहरूपीमहान्अन्धकारसे व्याप्त इसजगतमें विचारे मोहीजीव एकतो स्वयमेव ही श्रेष्टमार्गको नहीं देख सक्ते हैं यदि किसीरीतिसे देखभौसकें तो दुष्टपुरुष और भी उनकी आंखों में शृंगारादिशास्त्र सुनाकर धूली डालते हैं इसलिये कहांतक वे जीव खोटे मार्गमें गमन नहीं कर सक्त ? । भावार्थ:-जिसप्रकार जात्यन्ध पुरुषको एक तो स्वयमेव ही मार्ग नहीं सूझता किन्तु उसकी आंखों में यदि धूलि डाल दी जावे तो औरभी वह घबड़ाकर खोटे मार्गमें गिरपड़ता है उसहीप्रकार संसारमें भ्रमण करतेहुवे प्राणियोंको एक तो मोहके उदयसे स्वयं मार्ग नहीं सूझता परन्तु शृंगारादि रसोंके सुननेसे वे और भी खोटे मागौंमें गिरते हैं इसलिये भव्यजीवोंको चाहिये कि वे कदापि शृंगारादिरूपशास्त्रोंको न सुने जिससे उनको खोटे मार्ग, न गिरना पड़े ॥११॥ शार्दूलविक्रीदित । विण्मूत्रकृमिसंकुले कृतघृणैरंत्रादिभिः पूरिते शुक्रासृग्वरयोषितामपि तनुर्मातुः कुगर्भेऽजनि । सापि क्लिष्टरसादिधातुघटिता पूर्णा मलायेरहो चित्रं चंद्रमुखीति जातमतिभिर्विद्भिरावर्ण्यते ॥११४॥ 5600000०००००००००००००००००००००००००००००००००............ ॥५८॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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