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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥५७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 'पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । अर्थः --- जिसप्रकार अमूर्तीक होने के कारण आकाश आदि किसीके देखने में नहीं आसक्ते उसीप्रकार यद्यपि यह आत्मा किसीके दृष्टिगोचर नहीं है तो भी उसचैतन्यस्वरूप आत्मा के स्वरूपको शास्त्र के वलसे अथवा अपने अनुभवसे में वर्णन करता हूं इसलिये वुद्धिमानों को इसमें किसी प्रकारकी दगाबाजी नहीं समझनी चाहिये क्योंकि समस्तकर्मोंका राजा मोहनीय और अत्यंतप्रवलअंतरायरूपीशत्रु तथा ज्ञानावरण दर्शनावरण अभी मेरी आत्मा के साथ लगेहुवे हैं इसलिये वास्तविकस्वरूपके कहने में मेरी बुद्धि कैसे प्रत्रीण हो सक्ती है ? | भावार्थः — वास्तविकरोतिसे आत्मा के स्वरूपका वर्णन अर्हन्त ही करसक्ते हैं अल्पज्ञानी नहीं । तथा अभी मैं अल्पज्ञानी हूं इसलिये मेरा कथन सर्वज्ञदेवप्रणीतशास्त्र के अनुसार होनेके कारण तथा कुछ अनुभव से होने के कारण विद्वानों को अवश्य मानना चाहिये ॥११०॥ शार्दूलविक्रीडित] | विद्वन्मान्यतया सदस्यतितरामुद्दण्डवाग्डम्बराः शृङ्गारादिरसैः प्रमोदजनकं व्याख्यानमातन्वते । ये ते च प्रतिसद्म सन्ति वहवो व्यामोहविस्तारिणो येभ्यस्तत्परमात्मतत्वविषयं ज्ञानं तु ते दुर्लभाः ॥११९॥ अर्थः- अपनेको विद्वान् मानकर श्रृङ्गादिरससहित नानाप्रकार के प्रमोदजनकव्यख्यानोंको कहने वाले तथा सभामें व्यर्थ वचनों के आडम्बरको धारण करनेवाले और मनुष्यों को सन्मार्ग के भुलानेवाले पुरुष संसारमें प्रतिग्रह बहुतसे मिलेंगे परन्तु जो परमात्मतत्व के ज्ञानके देनेवाले हैं ऐसे मनुष्य बड़ी कठिनाईसे मिलते हैं ॥ १११ ॥ आपद्धेतुवु रागशेषनिकृतिप्रायेषु दोषेष्वलं मोहात्सर्वजनस्य चेतसि सदा सत्सु स्वभावादपि । तन्नाशाय च संविदे चफलवत्काव्यं कवेर्जायते शृङ्गारादिरसं तु सर्वजगतो मोहाय दुःखाय च ॥ ११२|| अर्थः --- समस्त मनुष्यों के चित्तोंमें नानाप्रकारके दुःख देनेवाले ऐसे राग द्वेष माया क्रोध लोभ आदि For Private And Personal ॥५७॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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