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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥४६॥ www.kobatirth.org पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । आर्या हृदि यत्तद्वाचि वहिः फलति तदेवार्जवं भवत्येतत् धर्मो निकृतिरधर्मो द्वाविह "सुरसझनरकपथ" ||८९|| अर्थः-- मनमें जो बात होवे उसहीको वचनसे प्रकट करना (नकि मनमें कुछ दूसरा होवे तथा वचन से कुछ दूसराही बोले ) इस को आचार्य आर्जव धर्म कहते हैं तथा मीठी बात लगाकर दूसरे को ठगना इस को अधर्म कहते हैं और इनमें आर्जवधर्मसे स्वर्गकी प्राप्ति होती है तथा अधर्म नरकको ले जाने वाला होता है इसलिये आर्जव धर्मके पालन करने वाले भव्य जीवोंको, किसी के साथ मायासे बर्ताव नहीं करना चाहिये । शार्दूलविक्रीड़ित । [१] समाधिष्वपीत्यपिपाठान्तरम् । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मायित्वं कुरुते कृतं सकृदपिच्छायाविघातं गुणेष्वाजा तेर्यमिनोऽर्जितेष्विह गुरुक्केशैः शर्मादिष्वलम् । सर्वे तत्र यदासते विनिभृताः क्रोधादयस्तत्वतस्तत्पापं वत येन दुर्गतिपथे जीवश्चिरंभ्राम्यति ॥९०॥ अर्थः-- आचार्य कहते हैं कि यदि एकवार भी किसी के साथ मायाचारी की जावे तो वह मायाचारी बड़ी कठिनता से संचय किये हुवे अहिंसा सत्यादि मुनियोंके गुणोंको फीका बना देती है अर्थात् वे गुण आदरणीय नहीं रहने पाते और उस मायारूपी मकानमें नाना प्रकार के क्रोधादि शत्रु छिपे हुवे बैठे रहते हैं और उसमायाचारसे उत्पन्न हुवे पापसे जीव नाना प्रकारके दुर्गति मागों में भ्रमण करता फिरता है इसलिये मुनियोंको माया अपने पास भी नहीं फटकने देना चाहिये ॥ ९० ॥ आगे आचार्य सत्यधर्मकावर्णन करते हैं । आर्या । स्वपरहितमेव मुनिभिर्मितममृतसमं सदैव सत्यं च For Private And Personal ॥४६॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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