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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥४५॥ 00000000००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पअनन्दिपश्चविंशतिका । तथा समस्त लोकको जड़ समझता हुवा भी "हेमन" मिथ्यादृष्टियोंसे दिये हुवे दुःखसे दुःखित होता है यह बड़ा आश्चर्य है ॥८६॥ मार्दवधर्मका वर्णन। वसंत तिलका धर्माङ्गमेतदिह मार्दवनामधेयं जात्यादिगर्वपरिहरमुषन्ति सन्तः । तद्धार्यते किमु न वोधदृशा समस्तं स्वमेन्द्रजालसदृशं जगदीक्षमाणः ॥८७॥ अर्थ-उत्तमपुरुष जाति वल ज्ञान कुल आदि गोंके त्यागको मार्दव धर्म कहते हैं तथा यह धर्मोका अंगभूत है इसलिये जो मनुष्य अपनी सम्यग्ज्ञानरूपीदृष्टिसे समस्तजगतको खप्न तथा इन्द्रजालके तुल्य देखते हैं वे अवश्यही इस मार्दवनामक धर्मको धारण करते हैं ॥ ८७ ।। शाक विक्रीड़ित । कास्था, सद्मनि, सुन्दरेऽपि,परितो, दंदह्यमानेऽमिभिःकायादौतुजरादिभिःप्रतिदिनं गच्छत्यवस्थान्तरम् इत्यालोचयतो, हृदि, पाशमिनः भास्वदिवेकोज्वले गर्वस्यावसरः कुतोऽत्र घटते भावेषु सर्वेष्वपि ॥८८॥ अर्थः-अत्यन्त मनोहर भी है किन्तु जिसके चारो तरफ अग्नि जलरही है ऐसे घरके बचने में जिसप्रकार अंशमात्र भी आशा नहीं की जाती उसही प्रकार जो शरीर वृद्धावस्थाकर सहित है तथा प्रतिदिन एक अवस्था को छोड़कर दूसरी अवस्थाको धारण करता रहता है वह शरीर सदाकाल रहेगा यह कब विश्वास हो सक्ता है ? इस प्रकार निरन्तर विवेकसे अपने निर्मलहृदयमें विचार करनेवाले मुनिके समस्त पदार्थों में अभिमान करनेके लिये अवसर ही नहीं मिल सक्ता इसलिये मुनियों को सदा ऐसाही ध्यान करना चाहिय॥८॥ १ पाश्चादवकोज्यसे-इत्यापि पाठान्तरम् । ................०००००००००00000०००००००००००००००००००००००००० ॥४५ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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