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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पयनन्दिपञ्चविंशतिका । वक्तव्यं वचनमथ प्रविधेयं धीधनैर्मोनम् ॥११॥ अर्थः-उत्कृष्ट ज्ञानके धारण करनेवाले मुनियोंको प्रथमतो बोलनाहीं नहीं चाहिये यदि बोले तो ऐसा वचन बोलना चाहिये जो समस्त प्राणियोंके हितका करने वाला हो तथा परमित हो और अमृत के समान प्रिय हो तथा सर्वथा सत्य हो किन्तु जो वचन जीवोंको पीड़ा देनेवालाहो तथा कड़वा हो तो उसवचनकी अपेक्षा मौन साधना ही अच्छा है ॥ ११ ॥ सति सन्ति व्रतान्येव सूनृते वचसि स्थिते भवत्याराधिता सद्भिःर्जगत्पूज्या च भारती ॥ ९२ ॥ अर्थः--जो मनुष्य सत्य वचन बोलने वाला है अर्थात् सत्य व्रतका पालन करने वालाहै उसके समस्त व्रत विद्यमान रहते हैं अर्थात सत्यव्रतके पालन करनेसे ही वह समस्त ब्रतोंका पालन करनेवाला होजाता है और वह सत्यवादीसज्जनपुरुष तीनलोककी पूजनीक सरस्वतीको भी सिद्ध करलेता है। भावार्थ:-सरस्वती भी उसके आधीन होजाती है ॥ १२ ॥ शार्दूल विक्रीहित । आस्तामेतदमुत्र सूनृतवचाः कालेन यल्लप्स्यते सद्भूपत्वसुरत्वसंसृतिसरित्पाराप्तिमुख्यं फलम् । यत्प्राप्नोति यशःशशांकविशदं शिष्टेषु यन्मान्यतां यत्साधुत्वमिहैव जन्मनि परं तत्केन संवर्ण्यते ॥९३॥ अर्थः-तथा और भी आचार्य कहते हैं कि सत्यवादी मनुष्य परभवमें जाकर श्रेष्ट चक्रवर्तीराजा बनते हैं तथा इन्द्रादिफलको प्राप्त करलेते है और सबसे उत्कृष्ट मोक्षरूपी फलको भी प्राप्त करलेते हैं यहबात तो दूर रहो किन्तु इसी भवमें वे चन्द्रमाके समान उत्तमकीर्तिको पा लेते हैं तथा शिष्ट मनुष्य उनको बड़ी प्रति ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀. ܀ $$; ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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