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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥४४॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । और भी उत्तमक्षमावाला क्या चिन्तवन करता है इसबातको आचार्य दिखाते हैं स्रग्धरा। दोषानाघुष्य लोके मम भवतु सुखी दुर्जनश्चेद्धनार्थी मत्सर्वखं गृहीत्वा रिपुरथ सहसा जीवितं स्थानमन्यः। मध्यस्थस्त्वेवमेवाखिलमिह हि जगज्जायतां सौख्याराशिर्मत्तोमाभूदसौख्यं कथमपि भविनः कस्यचित्पूत्करोमि अर्थ-मेरे दोषों को सबके सामने प्रकटकर संसारमें दुर्जन सुखी होवे तथा धनका अर्थी मेरे समस्त धन आदिको ग्रहणकर सुखी होवे तथा बैरी मेरे जीवनको लेकर सुखी होवे और जिनको मेरे स्थानके लेनेकी अभिलाषा है वे स्थान लेकर आनन्दसे रहैं तथा जो रागद्वेषरहित मध्यस्थ होकर रहना चाहे वे मध्यस्थ रहकर ही सुखसे रहैं । इसप्रकार समस्त जगत सुखसे रहो किन्तु किसी भी संसारीको मुझसे दुःख न पहुंचै ऐसा मैं सबके सामने पुकार २ कर कहता हूं ॥८५॥ शाल विक्रीड़ित । किं जानासि न वीतरागमखिलं त्रैलोक्यचूड़ामाणिं किंतद्धर्ममुपाश्रितं न भवता किंवा न लोकोजड़ः । मिथ्याग्भिरसजने रपटुभिः किञ्चित्कृतोपद्रवाद्यत्कमार्जनहेतुमस्थिरतया वाधां मनोमन्यसे ॥८६॥ अर्थः-मिथ्यादृष्टि दुर्जन मूर्ख जनोंसे किये हुवे उपद्रवसे चंचल होकर कौके पैदा करने में कारणभूत ऐसी वेदनाका तू अनुभव करता है सो क्या ? हेमन तीन लोकके पूजनीक बीतरागपनेको तू नहीं जानता है अथवा जिसधर्मको तूने आश्रयण किया है उस धर्मको तू नहीं जानता है अथवा यह समस्त लोक अज्ञानी जड़ है इस बातका तुझै ज्ञान नहीं है। भावार्थ:-तीन लोकके पूजनीक वीतरागभावको जानता हुआ भी तथा सच्चे धर्मका अनुयायी होकरभी ++++00000000000000000००००००००००००००००००००००000000000000 ॥४४॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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