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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥४८६॥ ++++++++++++ + + + 6 6 6 6 6 6 6 6 66 666666666666 पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । मनमें कभीभी मैं सुखी हूं तथा दुःखी हूं इसप्रकारके मलिनविकल्प नहीं होते हैं इसलिये योगियोंको चाहिये कि वे कर्म तथा आत्माके भेदको भलीभांति जानकर मैं सुखी हूं तथा दुःखी हूं इसप्रकारके मलिनविकल्पोंसे सर्वदा विमुक्त रहैं ॥ १२ ॥ देवं तत्प्रतिमां गुरुं मुनिजनं शास्त्रादि मन्यामहे सर्व भक्तिपरा वयं व्यवहृतौ मार्गे स्थिता निश्चयात् । अस्माकं पुनरेकताश्रयणतो व्यक्तीभवच्चिद्गुणस्फारीभूतमतिप्रबंधमहसामात्मैव तत्त्वं परम् ॥ १३ ॥ अर्थः-जवतक हम व्यवहारमार्गमें स्थित हैं तभीतक हम भक्तिमें तत्पर होकर देवको देवकीप्रतिमाको गुरूको मुनिजनोंको तथा सर्व शास्त्र आदिको मानते हैं किन्तु निश्चयनयसे तो एकत्वके आश्रयसे प्रगटहुवा जो चैतन्यरूपी गुण उससे प्रगल्भ जो बुडि उसबुद्धिसंवन्धी तेजके धारी हमारे केवल एक आत्मा ही उत्कृष्ट तत्त्व है किन्तु इससे भिन्न कोई भी तत्त्व नहीं है। भावार्थ:--जवतक हम व्यवहार मार्गमें स्थित है तब तकतो हम भक्तिवशहोकर देवको भी मानते हैं देवकी प्रतिमाको भी नमस्कार करते हैं तथा गुरु और मुनिजनोंको भी मानते हैं शास्त्र आदिकी भी भलीभांति भक्ति करते हैं किन्तु जिससमय हम शुद्ध निश्चय मार्गका अवलंबन करते हैं उससमय आत्माही हमारा उत्कृष्ट तत्त्व है क्योंकि उससमय एकत्वकी भावनासे प्राप्त हुई जो बुद्धिकी प्रौढ़ता उससे देव आदिका कुछभी Ri भेद प्रतीत नहीं होता ॥ १३ ॥ वर्ष हर्षमपाकरोतु तुदतु स्फीता हिमानी तनुं धर्मः शर्महरोस्तु दंशमशकं क्लेशाय सम्पद्यताम् । अन्यैर्वा बहुभिः परीषहभट्टरारभ्यतां मे मृतिर्मोक्षं प्रत्युपदेशनिश्चलमते त्रापि किञ्चिद्भयम् ॥१४॥ अर्थः-चाहै वर्षा मेरे हर्षको नष्टकरै औ बढ़ाहुवा जो वरफका समूह वह भलेही मेरे शरीरको पीड़ा ४८६॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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