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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥४७॥ .000000000000000000000000००००००.....०००००००००००००००००.. पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । दे, और सूर्यका आतपभी मेरे कल्याणोंका नाशकरनेवालाहो और डांस मच्छरभी मुझै दुःख देवे, तथा औरभी जो वचेहुवे परीषहरूपी सुभट है उनसेभी भलेही मेरा मरण होजाओ तोभी मुझे इनमें किसीसे कुछभी भयनहीं है क्योंकि मेरी बुद्धि मोक्षके प्रति जो उपदेश उससे निश्चल है ॥ भावार्थः -परीषह आदिके जयसे मोक्ष होता है ऐसे मोक्षके लिये श्रीगुरुद्वारा दियेहवे उपदेशसे मेरी बुद्धि निश्चल है इसलिये वर्षाकालमें चाहै वर्षा मेरे हर्षका नाशकरो और शरदकालमें चाहै बढ़ेहुवे वरफका समूह मेरे शरीरको दुःखितकरो और उष्णकालमें सूर्यका आतप भलेही मरे कल्याणों का नष्ट करनेवाला होवे और डांस मच्छर आदिकभी चाहें मुझै दुःख देवे और दूसरे २ बचेहुवे सुभटोंसेभी चाहैं मेरी मृत्युहोजावे तोभी मुझे इनौसे किसीसेभी कुछ भय नहीं है ॥ १४ ॥ चक्षुर्मुख्यहृषीककर्षकमयो ग्रामो मृतो मन्यते चेद्रूपादिकृषिक्षमां वलवता बोधारिणा त्याजितः: तचिंता न च सोऽपि सम्पति करोत्यात्मा प्रभुःशक्तिमान् यत्किञ्चिद्भवतितात्र तेन च भवोप्यालोक्यते नष्टवत् अर्थः-आत्मा सर्वशक्तिशाली प्रभू है इसलिये यह, यद्यपि सम्यग्ज्ञानका वैरी जो ज्ञानवरणकर्म ( अथवा मोह) है उसके द्वारा,नेत्र है प्रधान जिन्होंमें ऐसी जो इन्द्रियां उनइन्द्रियरूपीकिसानोंसे बनाहुवा (इन्द्रियरूपीकिसानस्वरूप ) जो ग्राम उसको मराहुवा मानता है तथा उन इन्द्रियरूपी किसानोंकी जो रूपादि खेती उसकी जो जमीन उससे रहित भी मानता है तोभी उन इन्द्रियोंकी तथा इन्द्रियोंके विषयोंकी कुछभी चिंता नहीं करता क्योंकि वह समझताहै कि जो कुछ होनेवालाहै वह तो होगा ही इसलिये वह समस्तजगतको सर्वथा नष्टसा ही समझता है। भावार्थ:-जिसप्रकार सर्वशक्तिमान राजा किसी वैरीद्वारा उजड़े हुवे अपने गांवको तथा जमीनको 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000 का॥४८७॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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