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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥४८५|| www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्यनन्दिपश्चविंशतिका । मोक्षस्थानको प्राप्त होता है ॥ . भावार्थ:- जिसप्रकार वन नानाप्रकारके हस्ती अजगर और वृक्ष तथा भिल्लोंके घरोंकर सहित भयंकर मार्गीका स्थान होता है और उसीवन में किसी हितैषीद्वारा बतलाये हुवे मार्ग से जो मनुष्य गमन करता है वह अपने उत्तम अभीष्ट स्थानपर पहुंच जाता है उसीप्रकार यह संसार भी बन है क्योंकि इसमें भी नानाप्रकारके दुःखरूपी हस्ती मौजूद हैं और यह हिंसा आदिक दोषरूपी वृक्षोंका स्थान है तथा दुर्गतिरूप भीलोंके घरोंकर सहित है खोटे भयंकर मार्ग इसमें भी हैं इसलिये इसप्रकार के संसाररूपी वनमें जो मनुष्य उत्तमगुरुओं द्वारा प्रकाशितमार्गमें गमन करता है वह मनुष्य कल्याणोंके करनेवाले निश्चल उत्कृष्ट तथा अनुपम निर्वाणपुरको प्राप्त होता है ॥ ११ ॥ यत्सातं यदसातमङ्गिषु भवेत्तत्कर्मकार्यं ततस्तत्कर्मैव तदन्यदात्मन इंदं जानंति ये योगिनः । ईदृग्भेदविभावनाकृतधियां तेषां कुतोहं सुखी दुःखी चेति विकल्पकल्मषकला कुर्यात्पदं चेतसि ॥ १२ ॥ ॥ अर्थः-- जीवों में जो सुख तथा दुःख हैं वे समस्तकमोंके कार्य हैं इसलिये कर्मही हैं और ये कर्म आत्मासे भिन्न है इसवातको जो योगीश्वर जानते हैं उन इसप्रकार की भेदभावनाके भावनेवाले योगीश्वरोंके मन में, मैं सुखी हूं और मैं दुःखीहूं इसप्रकारकी विकल्प संबन्धी जरासी भी मलिनता कैसे स्थानको प्राप्त करसकती है ? | भावार्थ:-- जबतक योगियोंको इसवातका भलीभांति ज्ञान नहीं होता कि सुख दुःख आदिक जो कार्य हैं वे कमाँके कार्य हैं इसलिये कर्मही हैं और आत्मा कमसे सर्वथा भिन्न हैं तभीतक उनके मनमें मैं सुखी हूं तथा दुःखी हूं इसप्रकार के विकल्प उत्पन्न होते रहते हैं किन्तु जिससमय योगियोंको इसप्रकारका भलीभांति ज्ञान होजाता है कि कर्म तथा उनके सुख दुःख आदिकार्य सर्व आत्मासे भिन्न हैं उससमय उनके For Private And Personal ॥४८५ ॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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