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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥४८४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । नग्नं मामवलोक्य निन्दतु जनस्तत्रापि खेदो न मे नित्यानंदपदमदं गुरुवचो जागर्ति चेचेतसि ॥१०॥ अर्थः- सदा आनंदस्थानको देनेवाला ऐसा श्रीगुरुका वचन यदि मेरे चित्तमें प्रकाशमान है तो चाहें मुनिगण मेरे ऊपर प्रीति मति करो और भलेही गृहस्थ लोग मुझे भोजन मत दो और मेरेपास धनमी चाहें कुछ न हो और मेरा शरीर भी भलेही रोगकर रहित मत हो और लोग मुझे नग्न देखकर चाहें मेरी निन्दाभी करो तो भी मुझे किसीप्रकारका खेद नहीं ॥ भावार्थः – जिससमय मेरे मनमें सदा आनंदका देनेवाला गुरूका वचन प्रकाशमान न हो। उससमय यदि मुनिगण मेरे ऊपर प्रीति न करें, तथा श्रावक लोग मुझे भोजन न देवे, और मेरे पास धन न होवे तथा शरीरभी नीरोग न होवे तथा मुझे नग्न देखकर लोग मेरी निन्दा करें तो मुझे खेद होसकता है किंतु यदि मेरे मन में श्रीगुरूका उपदेश विराजमान है तो मुझे उपर्युक्त कोईभी वात खेदके करनेवाली नहीं होसकती क्योंकि श्रीगुरूका उपदेश सदा आनंदस्थानका देनेवाला है ||१०|| दुःखव्यालसमाकुले भववने हिंसादिदोष मे नित्यं दुर्गतिपलिपातिकुपथे भ्राम्यन्ति सर्वेऽगिनः । तन्मध्ये सुगुरुप्रकाशितपथे प्रारब्धयानो जनो यात्यानंदकरं परं स्थिरतरं निर्वाणमेकं पदम् ॥ ११ ॥ अर्थः — जो संसाररूपीवन नानाप्रकारके दुःखरूपी जो हस्ती अनुवा अजगर उनसे व्याप्त है और जिसमें हिंसा असत्य चोरी आदिकदोषरूपी वृक्ष मौजूद हैं और जो संसाररूपीवन दुर्गतिरूपी जो भीलों के स्थान उनकरसहितजो खोटेमार्ग उनकर सहित है ऐसे संसाररूपीवनमें सदा समस्तजीव भ्रमण करते रहते हैं किन्तु उसी संसाररूपीवनमें उत्तम गुरुओं द्वारा प्रकाशितमार्गमें जो मनुष्य गमन करनेवाला है वह मनुष्य समस्त प्रकार के आनंदों को करनेवाले और उत्कृष्ट तथा निश्चल और अनुपम ऐसे निर्वाण स्थानको अर्थात् For Private And Personal ॥४८४॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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