SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 461
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥४४८॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पद्मनन्दिप चविंशतिका । भव्याम्बोरुहनन्दिकेवलरविः प्रामोति यत्रोदयं दुष्कर्मोदयनिद्रया परिहृतं जागर्ति सर्वं जगत् ॥ नित्यं यैः परिपव्यते जिनपतेरेतत्प्रभाताष्टकं तेषामाशु विनाशमति दुरितं धर्म सुखं वर्धते ॥ अर्थः-जिस श्रीजिनेंद्रदेवके सुप्रभातमें भव्यरूपीकमलोंको आनंदकादेनेवाला केवलज्ञानरूपी सूर्य उदय को प्राप्त होता है और जिसभगवानके सुप्रभातमें समस्तजगत खोटेकर्मोंसे पैदा हुई जो निद्रा उससे रहित होकर प्रचोध अवस्थाको प्राप्त होता है आचार्यवर कहते हैं कि जिनेन्द्रभगवानके इसप्रकारके उत्तम सुप्रभाताष्टकको जो भव्यजीव नित्य पढते हैं उनभव्यजीवोंके समस्त पापोंका नाश होजाता है और उनके धर्मकी वृद्धि होती है तथा सुखकी भी वृद्धि होती है । भावार्थ:-जिसप्रकार प्रातःकालमें कमलोंको आनंदके देनेवाले सूर्य का उदय होताहै तथा समस्तलोक निद्रासे रहितहोकर प्रबोध अवस्थाको प्राप्त होजाता है अर्थात् जगजाता है उसीप्रकार भगवानकासुप्रभात भी है क्योंकि भगवानके सुप्रभातमेंभी भव्यरूपीकमलोंको आनंदके देनेवाले अथवा भव्यपद्मनंदी आचार्यको आनंदके देनेवाले केवलज्ञानरूपी सूर्यका उदय होता है और समस्तलोक खोटेकौंसे पैदा हुई जो निद्रा उससे रहित होकर प्रबोध अवस्थाको प्राप्त होता है इसलिये आचार्यवर कहते हैं कि जो भव्यजीव सदा इसजिनेन्द्रभगवानके सुप्रभातप्टकस्तोत्रको पढ़ते हैं उन भव्यजीवोंके समस्त अशुभ काँका नाश होजाता है और उनके सुखकी तथा धर्मकी वृद्धि होती है ॥ ८ ॥ इसप्रकार श्रीपद्मनंदी आचार्यद्वारा विरचित श्रीपद्मनंदिपंचविंशतिकामें सुप्रभाताष्टकस्तोत्र नामक अधिकार समाप्तहुआ। ००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००८ ॥४४८॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy