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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥४४७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनन्दिप श्वविंशतिका । को समर्थ करता है किंतु अर्हत भगवानका सुप्रभात मनुष्योंकी दृष्टिको मूर्तीक तथा अमूर्तीक समस्तपदार्थों के देखने में समर्थ बनाता है तथा प्रातःकाल तो कामी पुरुषों की स्त्रीविषयक प्रीतिकोही नष्ट करता है किन्तु अर्हत भगवानका सुप्रभात समस्तप्रकारके मोहका नाश करनेवाला है इसलिये प्रातःकालकी अपेक्षा अर्हत भगवानका सुप्रभात अपूर्व महिमाकाधारी है इसमें किसीप्रकारका सन्देह नहीं ॥ ६ ॥ यद्भानोरपि गोचरं न गतवच्चिते स्थितं तत्तमो भव्यानां दलयत्तथा कुवलये कुर्वद्विकासश्रियम् । तेजः सौख्यहतेरकर्तृ सदिदं नक्तंचराणामपि क्षेमं वो विदधातु जैनमसमं श्रीसुप्रभातं सदा ॥ अर्थः – जो अंधकार सूर्यके भी गोचर [ विषयभूत ] नहीं है ऐसे इस भव्यजीवों के चित्तोंमें विद्यमान भी अंधकारको जो जिनेन्द्रका सुप्रभात नष्टकरनेवाला है तथा भूमंडलमें जो जिनेन्द्रका सुप्रभात विकासकी शोभाको धारणकरता है [अर्थात् पृथ्वीमंडलमें विकसित होता है] और जो जिनेन्द्रका सुप्रभात रात्रिमें गमन - करनेवाले जीवोंके तेज तथा सुखके नाशको नहीं करता है ऐसा यह समीचीन तथा उपमारहित जिनेन्द्रभगवानका सुप्रभात सदा आपलोगोंके कल्याणको करो । भावार्थ:- जो जिनेन्द्रका सुप्रभात, जहांपर सूर्य की भी गम्य नहीं है ऐसे भव्यजीवोंके मनमें मौजूद अंधकार का नाश करनेवाला है तथा जो समस्त पृथ्वीमंडलके ऊपर प्रकाशमान है और सूर्य तो रात्रिमें गमन करनेवाले उल्लू आदि जीवोंके तेज तथा सुखका नाश करनेवाला है किंतु जिनेन्द्रभगानका सुप्रभात रात्रि में गमन करनेवाले जीवोंके न तो तेजका नाश करनेवाला है तथा न सुखका नाश करनेवाला है और जो समीचीन है तथा उपमारहित है ऐसा यह जिनेन्द्र भगवानका सुप्रभात सदा आप लोगोंके कल्याणको करे ॥७॥ For Private And Personal ॥४४७॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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