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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥४४९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मन न्दिपञ्चविंशतिका । श्रीशांतिनाथस्तोत्रम् | शार्दूलविक्रीडित | त्रैलोक्याधिपतित्वसूचनपरं लोकेश्वरैरुद्धृतं यस्योपर्युपरीन्दुमण्डलनिभं छत्रत्रयं राजते ॥ अश्रांतोद्गतकेवलोज्वलरुचा निर्भर्सितार्कप्रभं सोऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशांतिनाथः सदा ॥१॥ अर्थः- जिन श्रीशांतिनाथ भगवान के मस्तकके ऊपर तीनोंलोकके स्वामीपने के प्रकट करनेमें तत्पर तथा देवन्द्रोंद्वारा आरोपित चंद्रमाके प्रतिबिम्बके समान तीनछत्र शोभित होते हैं और निरंतर उदयको प्राप्त ऐसा जो केवलज्ञान उसकी जो निर्मलकांति उससे जिनने सूर्यकी प्रभाको भी नीचे करदिया है और जो समस्त पापोंकर रहित हैं ऐसे वे श्रीशांतिनाथ जिनेन्द्र सदा हम लोगोंकी रक्षा करो । भावार्थः —— श्रीशांतिनाथ भगवान तीनोंलोकके स्वामी हैं इसबात के प्रकट करने के लिये जिन श्रीशांतिनाथ भगवान के मस्तक के ऊपर देवेन्द्रोंने चंद्रमा के समान तीनछत्र आरोपित किये हैं और जिन्होंने सदा उदयको प्राप्त ऐसे अपने केवलज्ञानकी कांतिसे सूर्यकी प्रभाको भी नीचे करदिया है और ज्ञानावरणादि कर्म जिनके पास भी नहीं फटकने पाते इसीलिये जो कर्मोंसे उत्पन्नहुई कालिमासे रहित हैं ऐसे श्री शांतिनाथ भगवान सदा हमारी रक्षाकरो अर्थात् ऐसे श्रीशांतिनाथ भगवानको नमस्कार है ॥ १ ॥ देवः सर्वविदेष एव परमो नान्यत्रिलोकीपतिः संत्यस्यैव समस्ततत्त्वविषया वाचः सतां सम्मताः । एतद्घोषयतीव यस्य विबुधैरास्फालितो दुन्दुभिः सोस्मान् पातु निरंजनो जिनपतिः श्रीशांतिनाथःसदा ॥ अर्थः- देवताओंकर ताड़ित (बजाईहुई ) जिस श्रीशांतिनाथ भगवानकी दुन्दुभि (नक्काड़ा) संसारमें मानों इस बातको प्रकट करके कहरहा है कि समस्तपदार्थोंको जाननेवाले तथा उत्कृष्ट और तीनोंलोकके पति For Private And Personal ॥४४९॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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