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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पअनान्दपञ्चविंशतिका । भावार्थ:-जिससमय मनुष्यको वास्तविक तखका निश्चय (श्रद्धान) होता है उसीसमय उसमनुष्यको यह पदार्थ त्यागने योग्य है तथा यह पदार्थ ग्रहण करने योग्य है इसप्रकारका विवेक होता है और ये दोनों वाते शास्त्र अध्ययनसे प्राप्त होती हैं विना शास्त्रके अध्ययनके नहीं किंतु आचार्यवर सरस्वतीकी स्तुति करते हैं कि हे मातः यदि मनुष्यके ऊपर आपकी कृपा न होवे तो वह मनुष्य भलीभांति शास्त्रका पाठी ही क्यों न हो ? उसको कदापि वास्तविकतोंका निश्चय नहीं हो सक्ता है और जब उसको वास्तविक पदार्थोंका निश्चय ही नहीं हो सक्ता है तब उसको हेय तथा उपादेयका ज्ञान तो होई नहीं सक्ता और आपकी कृपाके विना उस मनुष्यका बड़े क्लेशोंसे पाया हुवा मनुष्यभव भी व्यर्थ ही है इसलिये हे मातः आप ही तो जीवोंके तबके निश्चयमें कारण है तथा आपही उनके हिताहित विवेकमें कारण है तथा आपकी ही कृपासे मनुष्यका मनुष्यभव भी सर्वथा फलीभूत है ॥११॥ विधाय मातः प्रथमं त्वदाश्रयं श्रयति तन्मोक्षपदं महर्षयः। प्रदीपमाश्रित्य गृहे तमस्तत यदीप्सितं वस्तु लभत मानवः ।। अर्थः-जिसप्रकार मनुष्य, जो घर अधकारसे व्याप्त है ऐसे घरमें दीपकके आश्रयसे इष्ट वस्तुको प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार हे मातः बड़े २ ऋषि पहले आपके आश्रयको करते हैं सवेत्कृिष्ट पीछे उस प्रसिद्ध मोक्षस्थान को वे पाते हैं। भावार्थ:-जिस घर में बहुतसा अधकार भरा हुवा है यदि उस घरमें से कोई सनष्य चाहे कि मैं विना दीपकके ही अपनी इष्ट वस्तुको निकाल कर ले आऊं तो वह मनुष्य कदापि नहीं ला सक्ता किंतु दीपक की सहायता से ही ला सक्ता है इसलिये जिसप्रकार वह मनुष्य दीपककी चाह करता है उसीप्रकार हे मातः ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ 1४१४॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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