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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । सरस्वति यदि बड़े २ मुनि इसबातको चाहैं कि हम विनाही आपकी कृपाके सीधे मोक्षपदको चले जावे तो वे कदापि नहीं जासक्त किंतु आपकी सहायता से, कृपास, ही वे जा सक्ते हैं इसलिये वे सबसे प्रथम आप का आश्रय करते हैं पीछे मोक्षको जाते है इसलिये अत्यत तपस्वी भी मुनियों की मोक्षकी प्राप्तिमें आपही कारण हैं।॥१२॥ स्वयि प्रभूतानि पदानि देहिनां पदं तदेकं तदपि प्रयच्छति । समस्तशुक्लापि सुवर्णविग्रहा त्वमत्र मातः कृतचित्रचेष्टिता ॥ अर्थ:-हे मातः यद्यपि तुझमें अनेकपद हैं तौभी तू जीवोंको एकही पददेती है तथा यद्यपि तू चौतर्फी शुक्ल है तौभी तू सुवर्णविग्रहा ( सुवर्ण के समान शरीरको धारण करने वाली) है इसलिये तू इससंसारमें आश्चर्यकारी चेष्टाको धारण करने वाली है। भावार्थ:-इसश्लोकमें विरोधाभासनामक अलंकार है इसलिये आचार्यवर शब्दसे विरोध दिखाते हैं कि जो अनेक पदोंका धारण करनेवाला होगा? वह जीवोंका एकही पद क्यों देगा तथा जो चौतर्फी सफेदहोगा वह सुवर्णके रंगके समान शरीरको धारण करनेवाला कैसे होगा? अब आचार्यवर उसविरोधका अर्थसे परिहार करते है कि हे मातः यद्यपि आपमें अनेकपद (सुवंत तथा तिङतरूप ) मौजूद है तोभी अपनेभक्तों को आप एक मोक्षपदको देती है और यद्यपि आप शुक्ल (उज्वल ) हैं तोभी आप सुवर्णविग्रहा (श्रेष्ठ "वर्ण" अक्षररूपी शरीरको धारणकरनेवाली) हो इसलिये आपकी इस प्रकारका चष्टा आचार्य करती है ॥ सारार्थः-हेमात आप अनेक सुवंत तथा तिङतखरूपपदोंको धारण करनेवाली हो तथा भन्यजीवोंको मोक्ष को देनेवालीहो और आप सर्वथा निर्मलहो तथा श्रेष्ठवर्णरूपी शरीरको धारण करनेवाली हो ॥ १३ ॥ समुद्रघोषाकृतिरर्हति प्रभौ यदा त्वमुत्कर्षमुपागता भृशम् । ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥४१५॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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