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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀܀܀܀܀ पचनन्दिपश्चविंशतिका । चिरादति क्लेशशतैर्भवाम्बुधौ परिभ्रमन भूरि नरत्वमश्नुते । तनूभृदेतत्पुरुषार्थसाधनं त्वया विना देवि पुनः प्रणश्यति ॥ अर्थः--चिरकालसे इससंसाररूपी समुद्र में भ्रमण करता हुवा यह जीव सेकड़ों केशोंसे इस मनुष्य । जन्मको पाता है तथा वह मनुष्यभवही समस्त पुरुषार्थोंका साधन है किंतु हे देवि आपके विना वह पाया हुवा भी मनुष्यभव नष्टही हो जाता है। अर्थः--यद्यपि गतिचार हैं परंतु उनसवमें मनुष्यति ( मनुष्यभव) अत्युत्तम है क्योंकि इसमनुष्यभव में ही जीव काँसे छटनेका उपाय कर सक्ते हैं तथा सबसे उत्तम जो स्थान मोक्ष हैं उसको भी जीव इसी मनुष्यभवमें प्राप्त करते हैं किंतु इस मनुष्यभवकी प्राप्ति बड़ी कठिनाईसे होती है तथा इसमनुष्यभवकी प्राप्तिका फल यथार्थ तलज्ञानी बनना और तत्वज्ञानी बननेका उपाय सरस्वती की सेवा है इसलिये आचार्यवर कहते हैं कि हे मातः सरस्वति यदि आपकी कृपा न होवे तो मनुष्यका मनुष्यभव पाना व्यर्थ ही है क्योंकि वह मनुष्य विना आपकी कृपा से यथार्थ ज्ञान प्राप्त नहीं कर सक्ता है और यथार्थ ज्ञानके विना जो मनुष्यभव की प्राप्तिका फल है वह उसको नहीं मिल सक्ता है ॥१०॥ कदाचिदंव त्वदनुग्रहं विना श्रुते ह्यधीतेऽपि न तत्त्वानश्चयः । ततः कुतः पुंसि भवेदिवेकता त्वया विमुक्तस्य तु जन्म निष्फलम् ॥ अर्थः-हे मातः आपके अनुग्रहके विना शास्त्रके भलेप्रकार अध्ययनकरनेपरभी वास्तविकतखका निश्चय नहीं होता है और बास्तबिकतखके निश्चय न होनेके कारण मनुष्य में हिताहितका विवेक भी नहीं हो सक्ता है ? इसलिये हे देवि आपके अनुग्रहकर रहित जो पुरुष हैं उसका मनुष्य जन्म पाना निष्फलहीं है। ०००००00000000000000000000000000000000000000000000000000 ॥४१ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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